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अधिक सामग्रीका मिलना दुष्कर है । भाषा और शैलीको दृष्टिसे भी यह प्रन्य प्राचीन प्रतीत होता है। उत्तरवर्ती अनेक ग्रन्थकारोंने इसकी गाथाओंके उद्धरणपूर्वक उसकी प्रामाणिकता प्रकट की है। शिवायं और उनकी रचना
जीवन-परिचय-मुनि-आचारपर शिवार्यकी 'भगवती आराधना' अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। इसके अन्त में जो प्रशस्ति दी गयी है उससे उनकी गुरुपरम्परा एवं जीवनपर प्रकाश पड़ता है । प्रशस्तिमें बताया है
अजिणणंदिगणि-सव्वगुत्तमणि-अजमित्तणंदोणं । अवगमिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्यं च ।। पुच्चायरियणिबद्धा उपजीवित्ता इमा ससतोए । भाराणा सिवज्जेण पाणिदलभोइणा रइदा ।। छदुमत्थदाइ एत्य दुजं वद्धं होज्ज पवयण-विरुद्धं । सोधत सूगोदत्था पवयणवच्छल्लदाए दु॥ आराहणा भगवदरे एवं भत्तीए पण्णिदा संतो।
संघस्स सिवजस्स य समाधिवरमुत्तम देउ'। अर्थात् आर्य जिननन्दि गणि, आर्य सर्वगुल गण और आयं मित्रनन्दिके चरणोंके निकट मूलसूत्रों और उनके अर्थको अच्छी तरह समझकर पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध की गयी रचनाके आधारसे पाणिसलभोजी शिवायने यह आराधना अपनी शक्तिके अनुसार रची है । छपस्थता या ज्ञानको अपूर्णताके कारण इसमें कुछ प्रवचनविरुद्ध लिखा गया हो, तो विद्वज्जन प्रवचन-वात्सल्यसे उसे शुद्ध कर लें। इस प्रकार भक्तिपूर्वक वर्णन को हुई भगवतो आराधना संघको और शिवार्यको उत्तम समाधि दे ।
उपर्युक प्रशस्तिसे निम्नलिखित तथ्य निःसृत होते हैं१. शिवाय पाणितलभोजो होनेके कारण दिगम्बर परम्परानुयायी हैं।
२. आर्यशब्द एक विशेषण है। प्रतः प्रेमोजोके अनुमानके अनुसार इनका नाम शिवनन्दि, शिवगुप्त या शिवकोटि होना चाहिए।
३. भगवती अराधनाको रचना पूर्वाचार्यों द्वारा निबद्ध ग्रन्थोंके आधारपर
___४. शिवार्य विनीत, सहिष्णु और पूर्वाचार्योंके भक्त हैं। १, भगवती आराधना, सोलापुर संस्करण, गाषा २१६५-२१६८ ।
१२२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा