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लोकादि मूढ़ताओंमें प्रसिद्ध होनेवालोंके उदाहरण भी प्रस्तुत किये गये हैं। माध्याय-सम्बन्धी नियमों में आगम और सुत्रग्रन्थोंके स्वरूप भी बतलाये गये हैं। पिण्डराद्धि-अधिकारके आठ भेद हैं। इन सभी भेदोंका विस्तारपूर्वक कथन किया है। मुनियों के आहार-सम्बन्धी नियम, उसके दाष तथा उन दाबांके भंदप्रभेदोंका कथन आया है । मुनि शरोरधारणके हेतु आहार ग्रहण करते हैं और शरीर धर्म-साधनाका कारण है। अतः उसका भरण-पोषण कर आत्म साधनाके मागमें गतिशील होना परमावश्यक है। एषणा समिति, आहारयोग्य काल, भिक्षार्थगमन करनेको प्रवृत्ति-विशेष आदिका भी वर्णन आया है ।
सप्तम षडावश्यकाधिकार है। आतत्यकशब्दका निरीक्त सामायिकके छ: भेद, भावसामायिक और द्रव्यसामायिकको व्याख्याएँ, छेदोपस्थापनाका स्वरूप, चतुर्विशतिस्तव, नाम ओर भाव स्तवन, तीर्थका स्वरूप, वन्दनीय साधु, कृति कर्म, कायोत्सर्ग के दोष आदिका वर्णन है। आठवें अनगारभावनाधिकारमें लिंग, व्रत, वसति, विहार, भिक्षा, प्रान, शरीर, संस्कारत्याग, वाक्य, तप और ध्यानसम्बन्बो शुद्धियोंके पालनपर जोर दिया गया है। नवम द्वादशानुप्रेक्षाधिकार है 1 इसमें ऑनत्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, सवर, निर्जरा, धर्म, बोधि आदि अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनका वर्णन है। दशम समपसाराधिकार है। इसमें शास्त्रके सारका प्रतिपादन करते हुए चारित्र. को सर्वश्रेष्ठ कहा है। तप, ध्यानका वणन भा इसा अधिकारके अन्तर्गत है। अचेलकत्व, अनौद्देशिकाहार, शय्यागृहत्याग, राजपिण्डत्याग, कृतिकर्म, व्रत, ज्येष्ठ, प्रतिक्रमण, मासस्थितिकल्प और पर्यास्थितिकल्पका भी प्रतिपादन आया है। प्रतिलेखनक्रियाका वर्णन करते हुए पांच गुणोंका चित्रण किया है । आहारशुद्धिके प्रकरणमें विभिन्न प्रकारको शुद्धियोंका निरूपण आया है । यह अधिकार बहुत विस्तृत है। ग्यारहवें पर्याप्ति-अधिकारमें षड्पतियोंका निरूपण है। पर्याप्तिके संज्ञा, लक्षण, स्वामित्व, संख्या, परिमाण, निवृत्ति और स्थिति कालके छः भेद किये हैं। इन सभी भेदोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। बारहवें शीलगुणाधिकारमें शोलोंके उत्पत्तिका क्रम, पृथिव्यादि भेदोंका विवेचन, श्रमणधर्मका स्वरूपविवेचन, अक्षसंक्रमणके द्वारा शोलका उच्चारण, गुणोंको उत्पत्तिका क्रम, आलोचनाके दोष, गुणोंकी उत्पत्तिका प्रकार, संख्या और प्रस्तारके निकालनेकी विधिका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। नष्टोद्दिष्ट द्वारा अक्षानयनकी विधिका भी निरूपण है।
इस प्रकार इस महाप्रन्थमें मुनिके आचारका बहुत ही विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन किया गया है। यतिधर्मको अवगत करनेके लिए एक स्थानपर इससे
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : १२१