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समय दोनों भाईयोंने कारागृहसे निकल जानेका प्रयत्न किया। वे अपने प्रयत्नमें सफल भी हुये और कारागृहसे निकल भागे । प्रातःकाल ही बोद्ध गुरुको उनके भाग जानेका पता चला । उन्होंने चारों ओर घुड़सवारोंको दौड़ाकर दोनों भाईयोंको पकड़ लानेका आदेश दिया ।
घुड़सवारों ने उनका पीछा किया। कुछ दूर आगे चलन पर दोनों भाईयोने अपने पीछे आनेवाले घुड़सवारोंको देखा और अपने प्राणोंकी रक्षा न होते देख अकलंक निकटके एक तालाब में कूद पड़े । और कमलपत्रोंसे अपने आपको आच्छादित कर लिया । निष्कलंक भी प्राणरक्षाके लिये शोघ्रतासे भाग रहे थे। उन्हें भागता देख तालाबका एक धोबी भी भयभीत होकर साथ-साथ भागने लगा। घुड़सवार निकट आ चुके थे । उन्होंने उन दोनोंको शीघ्र ही पकड़ लिया और उनका वध कर डाला। घुड़सवारोके चले जाने पर, अकलंक तालाबसे निकल निभय होकर भ्रमण करने लगे।
कलिंग देशके रतनसंचयपुरका राजा हिमशीतल था। उसकी रानी मदनसुन्दरी जिनधर्मकी भक थी। वह बड़े उत्साहके साथ जैन रथ निकालना चाहती थो । किन्तु बौद्ध गुरु रथ निकलने देनेके पक्षमें नहीं थे। उनका कहना था कि कोई भी जन विद्वान जब तक मुझे शास्त्रार्थ में पराजित नहीं कर देगा, तबतक रथ नहीं निकाला जा सकता है | गुरुके विरुद्ध राजा कुछ नहीं कर सकता था । बड़े धर्मसंकटका समय उपस्थित था । जब अकलंकको यह समाचार मिला, तो वे राजा हिमशीतलकी सभामें गये और बौद्ध गुरुसे शास्त्रार्थ करनेको कहा । दोनोंमें छ: मास तक परदेके अन्दर शास्त्रार्थ होता रहा । अकलंकको इस शास्त्रार्थसे बड़ा आश्चर्य हुआ | उन्होंने इसका रहस्य जानना चाहा । उन्हें शोध्न हो ज्ञात हो गया कि बौद्ध गरुके स्थान पर, परदेके अन्दर घड़े में बैठी बौद्धदेवो तारा शाल्त्रार्थ कर रही है। उन्होंने परदेको खोलकर घड़ेको फोड़ डाला। तारादेवो भाग गयी और बौद्ध गुरु पराजित हुए। जनरथ निकाला गया और जैनधर्मका महत्त्व प्रकट हुआ ।' ।
'राजावालकथे'में भी उक्त कथा प्रायः समान रूपमें मिलती है। अन्तर इतना ही है कि काञ्चीक बौद्धोने हिमशीतलकी सभामे जैनोसे इसी शतं पर शास्त्रार्थ किया कि हारने पर उस सम्प्रदायके सभी मनुष्य कोल्हमें पेलवा दिये दिये जायं । इस कथाक अनुसार यह शास्त्रार्थ १७ दिनों तक चला है। अकलकको कुसूमाण्डिनी देवाने स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि तुम अपने प्रश्नोंको प्रकारान्तरस उपस्थित करने पर जीत सकोगे। अकलंकने वैसा ही किया और वे विजयी हुए । बौद्ध कलिंगसे सिलोन चले गये ।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३०३