________________
काञ्चीपुरीमें बौद्धधर्मके पालक पल्लवराजको छत्रछायामें अकलंकने बौद्धन्यायका अध्ययन किया । अकलंक शास्त्रार्थी विद्वान् थे । इन्होंने दीक्षा लेकर सुधापुरके देशीयगणका आचार्यपद सुशोभित किया । अकलंकने हिमशीतल राजाकी सभामें शास्त्रार्थ कर तारादेवीको परास्त किया ।'
'ब्रह्म नेभिदत्तकृत आराधनाकथाकोष और मल्लिषेण-प्रशस्तिसे भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है। मल्लिषेण-प्रशस्तिका अंकनकाल शक सं० १०५० है । अतएव ई० सन् १०७१ के लगभग अकलंकदेवके सम्बन्धमें उक्त मान्यता प्रचलित हो गयी थो
तारा येन विनिजिता घट-कुटी-गढ़ावतारा सम बौद्धों धूत-पोठ-पीडित-कुदृग्देवात्त-सेवाञ्जलिः । प्रायश्चित्तमिवाज्रि-वारिज-रज-स्नानं च यस्याचरत्
दोषाणां सुगतस्स कस्य विषयो देवाकलयुः कृती ॥ चूणि॥ यस्येदमात्मनोऽनन्य-सामान्य-निरवद्य-विद्या-विभवोपवर्णनमाकण्यते।।
राजन्साहसतुङ्ग सन्ति बहवः श्वेतातपत्रा नृपाः किन्तु त्वत्सदशा रणे विजयिनस्त्यागोन्नता दुल्लभाः। त्वद्वत्सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादोश्वरा वाग्मिनो
नाना-शास्त्र-विचारचातुरधियः काले कलो मद्विधाः' ।। नेमिदत्तके आरावनाकथाकोषमें बताया है-'मान्यखेटके राजा शुभतुंग थे। उनके मंत्रीका नाम पुरुषोत्तम था । पद्मावती उनकी पत्नी थी । पद्मावतीके गर्भसे दो पुत्र उत्पन्न हुए-अकलंक और निष्कलंक । अष्टाहिका महोत्सवके प्रारम्भमें पुरुषोत्तम मन्त्री सकुटुम्ब रविगुप्त नामक मुनिके दर्शनार्थ गये और वहां उन्होंने पुत्रों सहित आठ दिनोंका ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। पुवावस्था होनेपर पुत्रोंने विवाह करनेसे इन्कार कर दिया और विद्याध्ययनमें संलग्न हो गये । उस सयय बौद्धधर्मका सर्वत्र प्रचार था । अतएव वे दोनों महाबोधि-विद्यालयमें बौद्ध-शास्त्रोंका अध्ययन करने लगे।
एक दिन गुरुमहोदय शिष्योंको सप्तभंगो-सिद्धान्त समझा रहे थे, पर पाठ अशुद्ध होनेके कारण वे उसे ठीक नहीं समझा सके । गुरुके कहीं चले जाने पर अकलंकने उस पाठको शुद्ध कर दिया। इससे गुरुमहोदयको उनपर जैन होनेका सन्देह हमा। कुछ दिनों में उन्होंने अपने प्रयत्नों द्वारा उनको जैन प्रमाणित कर लिया। दोनों भाई कारागृहमें बन्द कर दिये गये । रात्रिके १. जैन शिलालेखसंग्रह, प्रथमभाग, अभिलेख ५४, पृ० १०४, पद्य २०-२१ । ३०२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा