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जीवन-परिचय
अकलंक मान्यष्क राजा, शुभम भात्री पुरुषालमत्र थे । 'राजापलिकथे' में इन्हें काञ्चोंके जिनदास नामक ब्राह्मणका पुत्र कहा गया है। पर तत्वार्थवातिकके प्रथम अध्यायके अन्त में उपलब्ध प्रशस्तिसे ये लघहब्बनृपत्तिके पुत्र प्रतीत होते हैं। प्रशस्तिमें लिखा है.....
जीयाच्चिरमकल'ब्रह्मा लघहल्चनपतिवरतनयः ।
अनबरतनिखिलजननुसविधः प्रशस्तजनहृद्यः ।। ये लघुहव्वनृपति कौन हैं और किस प्रदेशके राजा थे, यह इस पद्यसे या अन्य स्रोनसे ज्ञात नहीं होता। नामसे इतना प्रतीत होता है कि उन्हें दक्षिणका होना चाहिए और उसी क्षेत्रके वे नृपति रहे होंगे।
प्रभाचन्द्र के कथाकोषमें अकलंकको कथा देते हुए लिखा है कि एकबार अष्टाह्निका पर्वके अबसरपर अकलंकके माता-पिता अपने पुत्र अकलंक और निकलक महित मुनिराजके पास दर्शन करने गये। धर्मोपदेश श्रवण करनेके पश्चात उन्होंने आठ दिनोंके लिये ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया और पुत्रोंको भी ब्रह्मचर्यव्रत दिलाया । जब दोनों भाई वयस्क हए और माता-पिताने उनका विवाह करना चाहा, तो उन्होंने मुनिके समक्ष ली गयी प्रतिज्ञाकी याद दिलायो और विवाह करनेसे इन्कार कर दिया। पिताने पुत्रोंको समझाते हुये कहा कि "वह व्रत तो केबल आठ दिनोंके लिये ही ग्रहण किया गया था । अतः विवाह करने में कोई भी रुकावट नहीं है ।" पिताके उक्न वचनोंको सुनकर पुत्रोंने उत्तर दिया-"उस समय, समय-सोमाका जिक नहीं किया गया था। अत: ली गयी प्रतिज्ञाको तोड़ा नहीं जा सकता।"
पिताने पुन: कहा-"वत्स ! तुम लोग उस समय अबुद्ध थे। अत: ली गयी प्रतिज्ञामें समय-सोमाका ध्यान नहीं रखा । वहाँ लिये गये यतका आशय केवल आठ दिनोंके लिये ही था, जीवन-पर्यन्तके लिये नहीं । अतएव विवाह कर तुम्हें हमारी इश्छाओंको पूर्ण करना चाहिये।"
पत्र बोले-"पिताजी! एक बार ली गयी प्रतिज्ञाको तोड़ा नहीं जा सकता । अत: यह व्रत तो जीवन-पर्यन्त के लिये है । विवाह करनेका अब प्रश्न ही नहीं उठता।"
पुत्रोंको दृढ़ताको देखकर माता-पिताको आश्चर्य हुआ। पर वे उनके अभ्युदयका ख्यालकर उनका विवाह करने में समर्थ न हुए। अकलंक और निष्कलंक ब्रह्मवर्यकी साधना करते हुए विद्याध्ययन करने लगे।
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३०१