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भुजंगप्रयात, वंशस्थ, अनुष्टुप्, मालभारिणी और द्रुतविलम्बित छन्दोंका प्रयोग हुआ है । कविको उपजाति छन्द बहुत प्रिय है । भाषामें जहाँ पाडित्य है, वहाँ व्याकरण-स्खलन भी पाया जाता है । इस काव्यके प्रारम्भके तीन सगोंमें कविकी अपूर्व काव्यप्रसिभा परिलक्षित होती है 1
आचार्य अकलंकदेव प्रास्ताविक
जैन परम्परामें यदि समन्तभद्र जैन न्यायके दादा है, तो अकलंक पिता। ये बड़े प्रखर तार्किक और दार्शनिक थे। बौद्ध दर्शनमें जो स्थान धर्मकोतिको प्राप्त है, जैन दर्शनमें वही स्थान अकलंकदेवका है। इनके द्वारा रचित प्राय: सभी ग्रन्थ जैन दर्शन और जैन न्याय विषयक हैं। इनके इन ग्रन्थोंको, इन विषयोंका कार' ग्रन्थ कहा जा सकता
. अकलंकके सम्बन्ध में श्रवणवेलगोलाके अभिलेखोंमें अनेक स्थान पर स्मरण आया है। अभिलेखसंख्या ४७ में लिखा है
"बट्तकेंवकलङ्कदेवविबुधः साक्षादयं भूतले." अर्थात् अकलंकदेव षट्दर्शन और तर्कशास्त्रमें इस पृथ्वी पर साक्षात् विबुध (बृहस्पतिदेव) थे।
एक अन्य अभिलेखमें इनके द्वारा बौद्धादि एकान्तवादियोंको परास्त किये जानेकी चर्चा की गयी है
भट्टाकलङ्कोऽकृत सौगतादिदुर्वाक्यपङ्कस्सकलभूतं ।
जगत्स्वनामेव विधातुमुच्चैः सार्थ सामन्तादकलङ्कमेव ।। निश्चयतः अकलंकदेव द्वास जैन न्यायका सम्बर्द्धन हुआ है। अभिलेख नं. १०८ में पूज्यपादके पश्चात् अकलंकदेवका स्मरण किया गया है और मिथ्यात्व अन्धकारको दूर करनेके लिये सूर्यके तुल्य बताया गया है-- ततः परं शास्त्रविदां मुनीना
मग्रेसरोऽभूदकलङ्कसूरिः । मिश्यान्धकारस्थगिताखिलाः
प्रकाशिता यस्य वचोमयूखैः ॥ १. जैन शिलालेख संग्रह, प्रथम भाग, अभिलेख ४७, पृ० ६२, प ३० । २. वही, पु० १९८-१९९, पद्य २१ ।। २. वही, पृ. २११, पच १८, अभिलेख १०८ । ३०० : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा