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उपर्युक्त कथानकोंसे यह स्पष्ट है कि अकलंकदेव दिग्विजयी शास्त्रार्थी विद्वान थे। मल्लिषेण-प्रशस्तिके दूसरे पद्यमें आया है कि राष्ट्रकूटवंशी राजा , साहसतुंगकी सभा में उन्होंने सम्पूर्ण बौद्ध विद्वानोंको पराजित किया । काञ्चीके पल्लववंशो राजा हिमशीतलको राजसभामें भी उन्होंने अपूर्व विजय प्राप्त की थी । इसी कारण विद्यानन्दने अफाकफो सकतनकायमचूदमाग कहा है ।
समय-निर्धारण-अकलंकदेवके समयके सम्बन्धमें दो धारणाएं प्रचलित हैं। प्रथम धारणाके प्रवर्तक डा० के० बी०' पाठक हैं और दूसरी धारणाके प्रवर्तक प्रो. श्रीकण्ठ शास्त्री तथा आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार हैं। डा. पाठकने मल्लिषेण-प्रशस्तिके 'राजन् साहसतुंग' श्लोकके आधार पर इन्हें राष्ट्रकृट-बंशी राजा दन्तिदुर्ग या कृष्णराज प्रथमका समकालीन सिद्ध किया है तथा अकलंकचरितके निम्नलिखित पद्यमें आये हुए "विक्रमार्क' पदका अर्थ शक संवत् किया है
विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि ।
काले अकलंकयतिनो बौद्धर्वादो महानभूत् ।। अतः इनके मतानुसार अफलंका समय शक सं० ७०० (७७८ ई०) है।
दूसरी विचारधाराके पोषक श्रीकण्ठशास्त्री और आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार उक्त पद्यमें आये हए 'विक्रमाक' पदका अर्थ विक्रम संवत् करते हैं । अतः अकलंकका समय वि० सं० ७०० (ई० सन् ६४३) का विद्वान् मानते हैं। प्रथम परम्पराके समर्थकों में स्व. डा० आर० जी० भण्डारकर, स्व. डा. सतीशचन्द्र विद्याभूषण और स्व. श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी हैं। दूसरी धारणाके १. डा. के० बी० पाठक-(भर्तृहरि) और कुमारिल-ज- छ० रा. ए. सो.
भाग १८), अ० सतीशचन्द विद्याभूषण-(हि- इ. ला• पृ० १८६), डा. एस. आल्टेकर (दी राष्ट्रकूटाज एसड देअर टाइम्स, पृ० ४०९). पं० नाथूरामजी प्रेमी (जै हि. भाग ११ अंक ५-८), डा. वी. ए. सालेतोर (मिडि० अंनि पृ० ३५), आर नरसिंहाचार्य (इन्स० एट वणवेलगोलाके द्वि० सं० की भूमिका), एस. श्रीकण्ठ शास्त्री (ए. मा० ओ० रि० ई० भाग १२ में 'दी एज आफ शंकर'), पं. जुगलकिशोर मुख्तार (ज. सा. ६० वि० प्र० पु. ५४१), डा. ए. एन. उपाध्ये (डा. पाठकाज व्यु ऑन अनन्तवीर्याज डेट-ए. भा० दि०६० माग १३, पृ० १६१), पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री (न्या. कु. प., प्रथम मागकी प्रस्ता० पु. १०४), डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन-जन सन्देश शोक तथा पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य (सिं० बि. की प्रस्ता, पृ. ४४), डा. आर. जो भण्डारकर (शान्तरक्षितास रिपटेंसस), पिटर्सन आदि ।
३०४ : सीकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा