________________
पोषकों में डा० ए० एन० उपाध्ये, आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार और श्री पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री प्रभृति विद्वान् हैं ।
उक्त दोनों धारणाओंका आलोडन कर डा० महेन्द्रकुमारजो न्यायाचार्यने अकलंकद्वारा भर्तृहरि कुमारिल धर्मति की आदि आचार्य के विचारोंकी आलोचना पाकर अकलंकका समय ई० सन् ८ वीं शती सिद्ध किया है । न्यायाचार्य जीके प्रमाण पर्याप्त सबल हैं। आपने अकलंकदेवके ग्रन्थोंका सुक्ष्म अध्ययन कर उक्त निष्कर्ष निकाला है' ।
आचार्य कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने गहन अध्ययन कर अकलंकदेवका समय ई . ० सन् ६२० - ६८० तक निश्चित किया है और महेन्द्रकुमारजीके अनुसार यह समय ई० सन् ७२० - ७८० आता है। इस तरह इन दोनो समयोंके मध्यमे १०० वर्षोंका अन्तर है ।
धनञ्जयने अपनी नाममाला में एक पद्य लिखा है, जिसमें अकलंकके प्रमाणका जिक्र आया है । लिखा है
प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् 1 धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयभपश्चिमम् ||
अकलंकका प्रमाण, पूज्यपादका व्याकरण और धनञ्जय कविका काव्य ये तीनों अपश्चिम रत्न हैं ।
अकलंकदेवकी जेनन्यायको सबसे बड़ी देन है प्रमाण । इनके द्वारा की गयी प्रमाणव्यवस्था दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोके आचार्योंने अपनी-अपनी प्रमाणमीमांसाविषयक रचनाओं में ज्यों-का-त्यों अनुकरण किया है । अतः धनंजयने इस पद्यमें जैन तार्किक अकलंकदेव और उनके प्रमाणशास्त्रका उल्लेख किया है ।
धनञ्जयके पश्चात् वीरसेनस्वामीने अपनी घवला तथा जयधवला टीकाओंमें और उनके शिष्य जिनसेनने महापुराण में अकलंकका निर्देश किया है। वीरसेन स्वामीने अकलंकदेवका नामोल्लेख किये बिना 'तत्त्वार्थभाष्य' के नामसे उनके तत्त्वार्थवार्तिकका तथा सिद्धिविनिश्चयका उल्लेख करके उनके उद्धरण दिये हैं। जिनसेनने लिखा है
१. न्यायकुमुदचन्द्र भाग २, अकलंकग्रन्यत्रय एवं सिद्धिविनिश्चयटीका इन तीनों ग्रन्थोंकी प्रस्तावना |
२०
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : ३०५