________________
भट्टाकलङ्कश्रीपालपात्रकेसरिणां गुणाः ।
विदुषां हृदयातः हारायन्तेऽतिनिर्मा। अर्थात् भट्ट अकलंक, श्रीपाल और पात्रकेसरी आदि आचार्योंके अत्यन्त निर्मल गुण विद्वानोंके हृदय में मणिमालाके समान सुशोभित होते हैं ।
वीरसेनने धधलाटोकामें 'पति' शब्दका अर्थ बतलानेके लिए एक पद्य उद्धृत किया है, जो धनञ्जय कविकी अनेकार्थनाममालाका ३९ वां पद्य है। अतः धनञ्जय वीरसेनसे पूर्ववर्ती हैं और धनञ्जयसे पूर्ववर्ती अकलंक हुए हैं। अतएव अकलंकका समय सातवीं शतीका उत्तराद्धं सिद्ध होता है । रचनाएँ
अकलंकदेवकी रचनाओंको दो वर्गोमें विभक्त किया जा सकता है। प्रथम वर्गमें उनके स्वतन्त्र-ग्रन्थ और द्वितीय वर्गमें टीका-ग्रन्थ रखे जा सकते हैं। स्वतन्त्र-ग्रन्थ निम्नलिखित हैं
१. स्वोपज्ञवृत्तिसहित लघीयस्त्रय २. न्यायविनिश्चय सवृत्ति ३. सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति
४. प्रमाणसंग्रह सवृत्ति टीकाग्रन्थ
१. तत्त्वावात्तिक सभाष्य । २. अष्टशती-देवागमविवृति ।
१. सधीयस्त्रयों में तीन छोटे-छोटे प्रकरणोंका संग्रह है-(१) प्रमाणप्रवेश (२) नयप्रवेश और (३) निक्षेपप्रवेश । प्रमाणप्रवेशके चार परिच्छेद हैं-(१) प्रत्यक्षपरिच्छेद (२) विषयपरिच्छेद (३) परोक्षपरिच्छेद और (४) आगमपरिच्छेद । इन चार परिच्छेदोंके साथ नयप्रवेश तथा प्रवचनप्रवेशको मिलाकर कुल छः परिच्छेद स्वोपज्ञविवृत्तिमें पाये जाते हैं । लघीयस्त्रयके व्याख्याकार आचार्य प्रभाचन्द्रने प्रवचनप्रवेशके भी दो परिच्छेद करके कुल सात परिच्छेदों पर अपनी 'न्यायकुमुदचन्द्र' व्याख्या लिखी है। लघीयस्त्रय में कुल ७८ कारिकाएँ हैं किन्तु मद्रित लघीयस्त्रयमें ७७ हो कारिकाएं हैं, "लक्षणं क्षणिकैकान्ते'(कारिका ३५) नहीं है । इसके प्रथम परिच्छेदमें साढ़े छः, द्वितीय परिच्छेदमें ३, तृतीयमें १२, चतुर्थमें ७, पंचममें २१ तथा षष्ठी २८ इस प्रकार कुल ७८ कारिकाएं हैं। १. आदिपुराण, भारतीय ज्ञानपीट संस्करण, ११५३ । २. अकललग्रन्थत्रयके अन्तर्गत, सिंघी सिरीज । ३०६ : तीर्थकर महावीर ओर उनकी आचार्य-परम्परा