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संस्कृतपंचसंग्रहमें एक ही पद्यमें उसी तथ्यमें सन्निविष्ट कर दिया गया है और जहाँ एक पद्य तथ्य कहा गया है उसे दो या अधिक पद्योंमें भी कहा गया है । अमितगतिको यह रचना अत्यन्त सरल और मधुर है । कहीं-कहीं अन्य ग्रन्थोंसे आधार ग्रहणकर नये पद्य भी लिखे गये हैं । अतः प्राकृतपंचसंग्रहको अपेक्षा यह संस्कृत पंचसंग्रह किन्हीं रूपोंमें विशिष्ट है । प्राकृतपंचसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें वेदमागंणाके अन्तर्गत द्रव्यवेद और भाववेदको अपेक्षासे जीवोंकी सदशता और विसदशताका वर्णन करनेवाली दो गाथाएं आयी हैं। इनके स्थानपर अमितगतिने संस्कृतपद्यसंग्रहमें एक ही पद्य रचा है । यथाप्राकृतपंचसंग्रह
तिब्वेद एव सब्वे वि जीवा दिट्ठा हु दन्वभावादो । ते चेव हु विवरीया संभवंति जहाफम सब्वे ॥१०२॥ इत्थी पुरसि संसय क्या खलु दव-भावदो होति ।।
ते चेव य विवरीया हति सब्वे जहाकमसो ॥१०४॥ संस्कृतपंचसंग्रह
स्त्रीपुन्नपुंसका जीवा: सदृशाः द्रव्य-भावतः ।
जायन्ते विसदृक्षाश्च कर्मपाकनियन्त्रिताः ॥१९२॥ प्राकृतपञ्चसंग्रह
छहब्ब-णवपयत्थे दवाइचन्विहेण जाणते ।
वंदिता अरहते जीवस्स परूवणं वोच्छं ।। १॥ संस्कृतपश्चसंग्रह
ये षट् द्रव्याणि बुध्यते द्रव्यक्षेत्रादिभेदतः ।
जिनेशास्तास्त्रिया नत्वा करिष्ये जीवरूपणम् ॥ ३ ॥ प्राकृतपंचसंग्रह
गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य ।
उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भणिया ।। २ ।। संस्कृतपंचसंग्रह
विज्ञातव्या गुणा जीवाः प्राणपर्याप्तिमार्गणाः ।
उपयोगा बुधैः संज्ञा विशतिर्जीवरूपणाः ॥ ११ ॥ प्राकृतपंचसंग्रह
बेहिं दु लक्खिज्जते उदयादिसु संभवेहिं भावहिं ।
जीवा ते गुणसण्णा णिहिट्ठा सव्वदरिसीहिं ॥ ३ ।। ३९६ : तीर्थकर महाबीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा