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गये मिथ्याचरणको निन्दा की है। प्रत्येक जीवात्मा प्रमाद और कषायके योग से नाना प्रकारके कदाचारका सेवन करता है । इतस्ततः भ्रमण करनेवाले एकइन्द्रियादि जीवोंकी विराधना करता है और द्वीन्द्रियादि त्रसजीवोंको भी कष्ट पहुँचाता है। इसके लिए उसे अपनी निन्दा आदिके द्वारा प्रायश्चित्त करना चाहिए ।
कविने आराध्य देवकी बड़े ही सुन्दररूपमें स्तुति की है। यह आराध्य वीतरागी, हितोपदेशी और सर्वज्ञ ही हो सकता है। कवि उसकी स्तुति करता हुआ कहता है
यः स्मयंते सर्वमुनीन्द्रबुन्देयः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रः । यो गीयते वेदपुराणशास्त्रः स देवदेव) हृदये ममास्ताम् ॥ यो दर्शनानसुखस्वा रामस्थांसारविकारबाह्यः । समाधिगम्यः परमात्मसंज्ञः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ निषूदते यो भवदुःखजालं निरीक्षते यो जगदन्तरालं । योऽन्तर्गत योगिनिरीक्षणीयः स देवदेवी हृदये ममास्ताम् ॥ विमुकिमा प्रतिपादको यो यो जन्ममृत्युव्यसनाद्यतीतः । त्रिलोकलोकी विकलोकलङ्कः स देवदेवी हृदये ममास्ताम् || कोडीकृताशेषशरीरिवर्गा रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपायः स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥ यो व्यापको विश्वजनीनवृत्तेः सिद्धो विबुढो धुतकर्मबन्धः ।
ध्यातो धुनीते सकलं विकारं स देवदेवो हृदये ममास्ताम् ॥
यह छोटा-सा ग्रन्थ अत्यन्त सरस और हृदयको पावन करनेवाला है । परमात्माका स्वरूप इसमें निर्धारित किया गया है और उसी परमात्माको स्तुति की गयी है ।
६.
संग्रह (संस्कृत)
यह पञ्चसंग्रह प्राकृतपञ्चसंग्रहके समान पाँच प्रकरणोंमें विभक्त है । जीवसमास, प्रकृतिस्तव, कर्मबन्धस्तव, शतक और सप्तति । प्रथम प्रकरण में ३५३ पद्य, द्वित्तीय ४८, तृतीय में १०६ चतुर्थ में ७७८ और पञ्चममें ९० पद्य हैं। कुल पद्योंकी संख्या १३७५ है । प्राकृतपंचसंग्रह के समान संस्कृतपंचसंग्रह में भी पद्यों के साथ गद्य भी प्रयुक्त मिलता है। यह प्राकृतपंचसंग्रहका रूपान्तर होनेपर भी कई दृष्टियों से विशिष्ट है । जहाँ प्राकृतमें दो गाथाओंमें बात कही गयी है, वहाँ
१. द्वात्रिंश० पद्य १२-१७ ।
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तघर और सारस्वताचार्य : ३९५