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यद्यपि इस ग्रन्थका आधार हरिभद्रका बूतख्यान है, पर कविने स्वेच्छया कथावस्तु में परिवर्तन भी किया है। संस्कृतकाव्यमें इस कोटिके व्यंग्यप्रधान - काव्योंका प्रायः अभाव है । इस ग्रन्थकी कथाओंकी शैली आक्रमणात्मक नहीं है, सुझावात्मक है । व्यंग्य और संकेतोंके आधारपर असम्भव एवं मनगढन्त बातोंका निराकरण किया गया है।
३. उपासकाचार
यह अमितगति-श्रावकाचारके नामसे प्रसिद्ध है। उपलब्ध श्रावकाचारोंमें यह बहुत विशद, सुगम और विस्तृत है। इसमें १३५२ पद्य और १५ अध्याय हैं । अन्त में गुरुपरम्परा तो पायी जाती है, पर रचना - काल निर्दिष्ट नहीं है । मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका अन्तर, सप्ततस्त्व, अष्टमूलगुण, द्वादशव्रत और उनके अतिचार, सामायिकादि षट् आवश्यक, दान, पूजा, उपवास एवं १२ भावनाओंका सुविस्तृत वर्णन आया है। अनि अध्यायमें चोंमें किया गया है। ध्यान, ध्याता, ध्येय और ध्यान- फल - इन चारोंका विस्तृत वर्णन किया गया है ।
४. आराधना
शिवार्यकृत प्राकृत आराधनाका यह संस्कृत रूपान्तर है । कविने इस रूपान्तरको चार महीने में पूर्ण किया है। इसमें दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपइन चारों आराधनाओंका प्राकृत आराधनाके समान ही वर्णन किया है । प्रसंगवश जैनधमंके प्रायः समस्त प्रमेय इसमें समाविष्ट है । प्रशस्ति में देवसेन से लेकर अमितगति तककी गुरुपरम्परा भी दी गयी है ।
५. भावना द्वात्रिंशतिका
३२ पद्योंका यह छोटा-सा प्रकरण है । संसारके पदार्थोंसे पृथक् अनुभवकर आत्मशुद्धिको भावना व्यक्त की गयी है । हृदयको पवित्र बनानेके लिए यह एक अच्छा काव्य है । इसके पढ़नेसे पवित्र और उच्च भावनाओंका सञ्चार होता है ।
प्रारम्भ में ही प्राणी मात्र के साथ मैत्रीको भावना प्रकट करते हुए लिखा है
सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव ॥'
कविने इसमें परपदार्थों से भिन्न आत्मानुभूति करते हुए अपने द्वारा किये १. द्वात्रिंशतिका प्रथम पद्य, यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित है, साथ ही काशी से प्रकाशित प्रथम गुच्छकमें भी संगृहीत है ।
३९४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा