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संस्कृत पंससंग्रह
जीवा येरवबुध्यन्ते भावेरौद धिकादिभिः । गुणागुणस्वरूपज्ञेरत्र ते गदिता
गुणाः ॥ १२ ॥
अमितगति पञ्चसंग्रहका वैशिष्टच
प्राकृतपंचसंग्रहको अपेक्षा संस्कृतपञ्चसंग्रह में कई विशेषताएं हैं। इन विशेषताओंको हम निम्नलिखित वर्गों में विभक्त कर सकते हैं
१. संक्षेपीकरण,
२. पल्लवन,
३. विषयोंका प्रकारान्तरसे संयोजन |
उपर्युक्त विशेषताओंके स्पष्टीकरण के लिए प्राकृतपंचसंग्रह के साथ तुलनात्मक अध्ययन अपेक्षित है ।
जीवसमास नामक प्रथम प्रकरणमें चौदह गुणस्थानों और गिद्धोंका कन करनेके बाद किस गुणस्थानमें कौन भाव होता है, इसका विवेषव किया है । अनन्तर चौदह् गुणस्थानोंमें रहनेवाले जीवोंकी संख्याका निगण आया है । यह कथन गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ११-१४ तथा ६२२-६३ : में किया गया है । संस्कृत पंचसंग्रह में इससे भी कुछ विशेष कथन आया है। अमितगतिने जीवद्वाण के द्रव्यप्रमाणानुगमकी घवलाटीकासे उक्त विषय ग्रहण किया गया है | इसी प्रकार योगनिरूपण के अन्त में पद्य १८१ - १८५ तक विग्रहगति आदिमें शरीरोंका कथन आया है । यह कथन प्राकृतपञ्चसंग्रहको अपेक्षा विशिष्ट है । इसी तरह वेदमार्गंणाके कथन के अन्तमें पद्य १९३ - २०२ में वेदवैषम्यके नवभंगों का विवेचन तथा स्त्रीवेद आदिके चिह्नोंका कथन भी प्राकृतपंचसंगको अपेक्षा विशिष्ट है । ज्ञानमार्गणांके निरूपण में भी कई विशेषताएँ आयी हैं । इन सन्दर्भों में प्राकृतपंचसंग्रहका आधार न ग्रहणकर तत्त्वार्थवार्तिकका आधार ग्रहण किया गया है । मतिज्ञानके २८८, ३३६ और ३८४ भेद आये हैं तथा श्रुतपूर्वक श्रुतका भी समर्थन किया गया है | अवधिज्ञानके लक्षणों और चिह्नोंका कथन तत्त्वार्थवार्तिकके अनुसार आया हैं ।
प्राकृतपंचसंग्रह में लेश्याका कथन प्रथम प्रकरण में दो स्थलोंपर आया है, पर संस्कृतपञ्चसंग्रह में अमितगतिने इसे एक ही स्थानपर निबद्ध कर दिया है। रूपान्तरोंमें भी मौलिकताका कई जगह समावेश किया है। यहाँ एक उदरहरण प्रस्तुत किया जाता है-
भन्दो पचिदिओ सणी जोवो पज्जत्तओ तहा । काललाइ संजुत्तो
सम्मतं
पडिवज्जए ||१|१५८|
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : ३९७