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अमितगतिने इसका रूपान्तर निम्न प्रकार किया है
पूर्णपंचेन्द्रियः संजी लब्धकालादिलब्धिकः ।
सम्यक्त्वग्रहणे योग्यो भन्यो भवति शुद्धधीः ॥ २८६ ॥ अर्थात् संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव कालादिलब्धिकी प्राप्ति होनेपर सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होता है। अमितगतिने यहाँ लब्धियोंका वर्णन भी विस्तारपूर्वक किया है और तत्त्वार्थवातिकके नवम अध्यायके प्रथम सूत्रसे बहुत-सा गद्यांश ज्यों-का-त्यों ले लिया है। सम्यक्त्वके भेद-प्रभेदोंका विवेचन भी विस्तारपूर्वक किया गया है, जो प्राकृतपंचसंग्रहमें प्राप्त नहीं है। इसी सन्दर्भ में मिथ्यात्वका कथन करते हुए ३६३ मतोंको उत्पत्ति दो गयी है, जो कर्मकाण्डके अनुरूप है। प्रथम अध्यायके अतिरिक अन्य समायोके में भी यशतः वैशिष्टय दष्टिगोचर होता है। चतुर्थ अध्यायमें ९वें गुणस्थान में होनेवाले प्रत्ययोंका कथन प्राकृतपंचसंग्रहमें आया है। यथा
संजलण-तिवेदाणं णवजोगाणं च होइ एयदरं । संढणदुवेदाणं एयदरं पुरिसवेदो य १।४।२०१॥
-ज्ञानपीठ संस्करण
। अर्थात् नवें गणस्थानके सवेद भागमें चार संज्वलन कषायमेंसे एक, तीन वेदोंमेंसे एक और नौ वेदों से एक होता है । नपुसकवेदकी उदयव्युच्छित्ति हो जानेपर दो वेदों में से एक वेदका उदय होता है और स्त्रीवेदकी उदय. च्छित्ति हो जानेपर एक पुरुषवेदका उदय होता है। अतः ४४३ ४९% १०८, ४४२४९ = ७२ और ४४१४९-३६ भंग होते हैं और कुल भंग १०८ + ७२ + ३६ = २१६ ये भंग सवेद भागके हुए । अवेदभागमें भंगोंका क्रम निम्नप्रकार है
चदुसंजलणणवण्हं जोगाणं होइ एयदर दो ते । कोहणमाणबज्ज मायारहियाण एगदरगं वा ॥४॥२०॥
-ज्ञानपीठ संस्करण अर्थात् अवेदभागमें चार स्वंजलन कषायों से एकका, तथा नौ योगोंमेंसे एकका उदय होता है। क्रोधकी उदयव्य च्छिप्ति हो जानेपर तीन कषायोंमेंसे एकका उदय होता है। मानकी व्यच्छित्ति हो जानेपर दो कषायोंमेंसे एकका उदय और मायाको व्युच्छित्ति हो जानेपर केवल लोभ कषायका उदय होता है। नो योगोंमेंसे एक योगका उदय सर्वत्र रहता है । अतएव ४४१४९ - ३६, ३४१४९ - २७, २४१४५ = १८ और १x१४९ = ९ इस प्रकार
३९८ : तोयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा