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बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने जिज्ञासा प्रकट की कि आपने किसको आशीर्वाद दिया है ? उत्तरमें बताया गया कि भरतक्षेत्रमें स्थित कुन्दकुन्द मुनिको आशीर्वाद दिया है। वहाँपर कुन्दकुन्दके पूर्वजन्मके चारणऋद्धिधारी दो मित्रमुनि उपस्थित थे। वे वारांपूर गये और वहाँसे आकाशमार्ग द्वारा कुन्दकुन्दको ले आये। बाकाशमार्गमें जाते समय उनको मयरपिच्छो गिर गई और उन्होंने गुद्धपिच्छोसे अपना काम पर सन्दकुन्द नहीं एक कहा रहे और अपनी शंकाका समाधान किया। लौटते समय वे अपने साथ एक तन्त्रमन्त्रका ग्रन्थ भी लाये थे, किन्तु वह मार्गमें लवणसमुद्रमें गिर गया। कुन्दकुन्दने भरतक्षेत्रमें अपना धार्मिक उपदेश प्रारम्भ किया और इनके सहस्रों अनुयायी हो गये | तत्पश्चात् गिरिनार पर्वतपर श्वेताम्बरोंके साथ उनका विवाद हो गया और वहांकी ब्राह्मी देवीके मुखसे यह कहलवाया गया कि दिगम्बर निर्ग्रन्थ मार्ग ही सच्चा है । उन्होंने अपना आचार्यपद अपने शिष्य उमास्वाति. को प्रदान किया और सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग किया । ___ 'ज्ञानप्रबोध' को इस कथाका परीक्षण करनेपर अवगत होता है कि 'जम्बूदीवपणसो' के कर्ता पदानन्दिको कुन्दकुन्दसे अभिन्न समझकर उनका स्थान बारांपुरनगर बताया है । माता-पिताके नाम कुन्दलता और कुन्दश्रेष्ठि भी कल्पित प्रतीत होते हैं। विदेहगमनको कथा हो पहलेसे प्रचलित थी उसे भी जोड़कर प्रामाणिकता लानेका प्रयास किया गया है । ___ कुन्दकुन्दके जीवन-परिचयके सम्बन्धमें विद्वानोंने सर्वसम्मतिसे जो स्वीकार किया है उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये दक्षिण भारतके निवासी थे। इनके पिताका नाम कर्मण्डु और माताका नाम श्रीमती था। इनका जन्म 'कोण्डकुन्दपुर' नामक स्थानमें हुआ था । इस गाँवका दूसरा नाम कुरूमरई' भी कहा गया है । यह स्थान पेदथनाडु नामक जिलेमें है। कहा जाता है कि कर्मण्डुदम्पतिको बहुत दिनों तक कोई सन्तान नहीं हुई । अनन्तर एक तपस्वी ऋषिको दान देनेके प्रभावसे पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई, जिसका नाम आगे चलकर ग्रामके नामपर कुन्दकुन्द प्रसिद्ध हुआ। बाल्यावस्थासे हो कुन्दकुन्द प्रतिभाशाली थे। इनकी विलक्षण स्मरणशक्ति और कुशाग्र बुद्धिक कारण ग्रन्याध्ययनमें इनका अधिक समय व्यतीत नहीं हुआ। युवावस्थामें इन्होंने दीक्षा ग्रहणकर आचार्य-पद प्राप्त किया।
कुन्दकुन्दका वास्तविक नाम क्या था, यह अभी तक विवादग्रस्त है। द्वादशअनुप्रेक्षाकी अन्तिम गाथामें उसके रचयिताका नाम कुन्दकुन्द दिया हआ है । जयसेनाचायने समयसारकी टीकामें पचनन्दिका जयकार किया है। इन्द्र
श्रुतधर और सारस्वताचार्य : १०१