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अपरनाम पद्मनन्दि बताया है। इनके उल्लेखानुसार कुन्दकुन्द कुमारनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य थे।
जयसेनने टीकाके प्रारम्भमें कुन्दकुन्दके पूर्व विदेहमें जानेको कथाकी ओर भी संकेत करते हुए लिखा है कि इन्होंने पूर्वविदेहमें वीतराग सर्वज्ञ सीमन्धर स्वामीके दर्शन किये थे । और उनके मुखकमलसे निस्सृत दिव्यवाणीको सुनकर अध्यात्मतत्त्वका सार ग्रहण कर वे वापस लौट आये थे। उन्होंने अन्तस्तत्त्व और बाह्यसत्त्वकी मुख्यता एवं गौणताका ज्ञान करानेके लिये शिवकुमार महाराज आदि संक्षेप रुचिवाले शिष्योंके प्रतिवोधनार्थ पञ्चास्तिकायप्राभृत शास्त्रको रचना की ।
कुन्दकुन्दके जीवनवृत्त एवं व्यक्तित्वके सम्बन्धमें अबतक प्राप्त सूचनाओंमें ऐसी दो कथाएँ प्राप्त हैं, जिनसे उनके जीवनपर प्रकाश पड़ता है। कथाओंमें कितना अंश सत्य और तथ्य है, यह तो नहीं कहा जा सकता है, पर इतना स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द अध्यात्मशास्त्रके महान प्रणेता एवं युगसंस्थापक आचार्य थे।
प्रथम कथा ब्रह्मनेमिदत्त विरचित आराधनाकयाकोषमें शास्त्रदानके फलस्वरूप आई है।
दूसरी कथा 'ज्ञानप्रबोध' नामक अन्यमें आई है, जिसका प्रकाशन पं० नाथूराम जी प्रेमीने जैन हितैषीमें किया था। कथा में बताया है कि मालच देशके बारांपुर नगरमें कुमुदचन्द्र नामका राजा राज्य करता था। उसको रानीका नाम कुमुदचन्द्रिका था । इस राजाके राज्यमें कुन्दश्रेष्ठो अपनी पत्नी कुन्दलताके साथ निवास करता था। इनके कुन्दकुन्द नामका पुत्र उत्पन्न हुआ। यह शिशु कौशवसे ही गंभीर, चिन्तनशील और प्रतिभाशाली था। जब यह ग्यारह वर्षका था, उस समय नगरके उद्यानमें एक मुनिराज आये। उनका उपदेश सुननेके लिए नगरके नरनारी एकत्र हुए 1 कुन्दकुन्द भी उसमें सम्मिलित हुआ था | मनिराजका उपदेश सुनकर विरक्त हो गया और दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर मुनि बन गया। ३३ वर्षकी अवस्थामें इन्हें आचार्य-पद मिला। इनके गुरुका नाम जिनचन्द्र बताया गया है ।
एक दिन आचार्य कुन्दकुन्द आगमग्रन्थोंका स्वाध्याय कर रहे थे कि उनके मनमें एक शंका उत्पन्न हई। वे ध्यानमग्न हो गये और विदेह क्षेत्रमें स्थित सीमन्धरस्वामीके प्रति एकाग्र हुए। सीमन्धरस्वामीने 'सद्धर्मवृद्धिरस्तु' कहकर आशीर्वाद दिया । समवशरणमें स्थित व्यक्तियोंको इस आशीर्वादको सुनकर १. जैन हितैषी, भारः १०, पृ० ३६९. १०० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा