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सवियारो हुन मासात्तेसुजं जिणें कहिये । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबास्स || वारसांगवियाण चउदसपुण्यंगवि उलवित्थरणं । सुयणाणि मद्दद्बाहू गमयगुरू भयवओ जयओ' ॥ अर्थात् कुन्दकुन्दने अपनेको श्रुतकेवली भद्रबाहुका शिष्य कहा है।
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में 'कसायपाहूड' और षट्खण्डागम' नामक सिद्धान्तग्रन्थोंकी रचनाका इतिवृत्त अंकित करनेके पश्चात् लिखा है कि ये दोनों सिद्धान्तग्रन्थ कीण्डकुन्दपुर में पद्मनन्दिमुनिको प्राप्त हुए और उन्होंने षट्खण्ड: गमके प्रथम तीन खण्डोंपर साठ हजार श्लोक प्रमाण 'परिकर्म' नामक ग्रन्थको रचना की। दर्शनसार में देवसेनने भी आचार्य पद्मनन्दिकी प्रशंसा करते हुए लिखा है
जइ पउमनंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विबोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाति ॥ ३
अर्थात् पद्मनन्दि स्वामीने सीमन्धर स्वामीसे दिव्यज्ञान प्राप्तकर अन्य मुनियोंको प्रबोधित किया। यदि वे इस प्रबोधन कार्यको न करते तो श्रमण किस प्रकार सुमार्गको प्राप्त
कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंके दो आचार्य टीकाकार हैं- अमृतचन्द्र और जयसेन | अमृतचन्द्र ने अपने मूलग्रन्थकर्त्ताकि सम्बन्धमें कुछ भी निर्देश नहीं किया है। पर जयसेनने लिखा है- “नन्दि जयवन्त हों, जिन्होंने महातत्त्वोंका कथन करनेवाले समय प्राभृतरूपी पर्वतको बुद्धि उद्धार करके भव्यजीवोंको अर्पित किया ।""
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पञ्चास्तिकाय की" टीका प्रारम्भ करते हुए भी जयसेनने कुन्दकुन्दका
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१. घोषपाहुड, गाथा ६०-६१, कुन्दकुन्द भारती संस्करण |
२. श्रुतश्वसार, पद्य १६०-१६१.
३. दर्शनसार, गाथा ४३.
४. जयउ रिसिपजमणंदी जेण महातच्च पाहुड सेलो ।
बुद्धिसि रेणुद्धरिओ समपिओ भव्यलोयस्स ||
समयसार, स्याद्वादाविकार, अहिंसा-मन्दिर प्रकाशन १, दरियागंज, दिल्ली-६ टीकाका अन्तिम पक्ष
पञ्चास्तिकाय, जयसेनटीका 'अथश्रीकुमारनन्दि सिद्धान्तदेव शिष्ये प्रथम पुष्ठ, अन्थारम्भ !
श्रुतथर और सारस्वताचार्य : ९९