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परुचिदो' । '
उच्चारणसम्बन्धी इस मतभेदसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि आचार्य वप्पदेवके अभिमतका प्रचार पृथक् रूपमें वर्तमान था । वप्पदेवकी जिन सिद्धान्तोंमें मतभिन्नता वत्तंमान थी, उसका निर्देश यथास्थान जयधवला और धवलाटीका में प्राप्त है।
आचार्य कुन्दकुन्द और उनका साहित्य
श्रुतवर आचार्योंकी परम्परामें कुन्दकुन्दाचार्यका स्थान महत्त्वपूर्ण है । इनकी गणना ऐसे युगसंस्थापक आचार्य के रूप में की गयी है, जिनके नामसे उत्तरवर्ती परम्परा कुन्दकुन्द - आम्नायके नामसे प्रसिद्ध हुई है। किसी भी कार्यके प्रारम्भमें मंगलरूपमें इनका स्तवन किया जाता है। मङ्गलस्तवनका प्रसिद्ध पद्म निम्न प्रकार है—
मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी | मंगले कुकुन्दा चैव
मंगलम् ॥
जिसप्रकार भगवान् महावीर, गौतम गणधर और जैनधर्म मङ्गलरूप हैं, उसी प्रकार कुन्दकुन्द आचार्य भी । इन जैसा प्रतिभाशाली अध्यात्म और द्रव्यानुयोगके क्षेत्रमें प्रायः दूसरा आचार्य दिखलाई नहीं पड़ता ।
इनकी रचनाओंसे इनके जीवन-वृत्त के सम्बन्धमें कुछ भी निश्चित जानकारी प्राप्त नहीं होती । इन्होंने 'वारसअणुवेक्खा' ग्रन्थ में अपने नामका निर्देश किया है । लिखा है
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इदि णिच्छय-चवहारं जं भणिये कुन्दकुन्द मुणिणाहे । जो भाव सुद्धमणो सो पावद्द परभणिव्वाणं ॥
'इस प्रकार कुन्दकुन्द मुनिराजने निश्चय और व्यवहारका अवलम्बन लेकर जो कथन किया है, उसकी शुद्ध हृदयसे जो भावना करता है वह परमनिर्वाणको प्राप्त कर लेता है ।'
स्पष्ट है कि 'वारसअणुवेक्खा' में कुन्दकुन्दके नामका उल्लेख मिलता है । कुन्दकुन्दके टीकाकार जयसेन और श्रुतसागरसूरिने भी कुन्दकुन्दकी रचनाएँ बतलाती हैं । बोधपाहुड में कुन्दकुन्दने अपने गुरुका नाम भद्रबाहु बतलाया है | गाथाए निम्न प्रकार हैं
१. जयघवलाटीका, पृ० १८५ ।
२. वा एस अणुवेक्खा, गाया ९१, कुन्दकुन्द भारती संस्करण ।
९८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा