________________
1
जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति बतलायी गई है । अद्धाच्छेद, सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जयन्यविभक्ति, अजघन्यविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रुवविभक्ति, अध्रुवविभक्ति आदिका कथन किया है ।
३. अनुभाग-विभक्ति-अधिकारमें कर्मोंको फलदान - शक्तिका विवेचन किया गया है । आचार्यने यहाँ उस अनुभागका विचार किया है जो बन्धसे लेकर सत्ताके रूपमें रहता है । वह जितना बन्धकालमें हुआ उतना भी हो सकता है और होनाधिक भी संभव है । उसके दो भेद हैं- १. मूलप्रकृति - अनुभागविभक्ति और २ उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्ति । इस सबका वर्णन संक्षेपमें किया है। इस अधिकारमें संज्ञाके दो भेद किये हैं- १. घातिसंज्ञा और २. स्थानसंज्ञा । मोहनीयकमंकी घातिसंज्ञा है क्योंकि वह जीवके गुणोंका घातक है । घातीके दो भेद हैं- सर्वघाती वाती | मोहाड अनुभाग सबंधाती है और अनुत्कृष्ट अनुभाग सर्वघातो और देशघाती दोनों प्रकारका है। इसी तरह जघन्य अनुभाग और अजघन्य अनुभाग देशघाती मौर सर्वघाती दोनों प्रकारका है। स्थान अनुभागके चार प्रकार है-- एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक । इस प्रकार अनुभाग विभक्ति में अनुभाग के विभिन्न भेद-प्रभेदों का कथन किया है ।
-
४. प्रदेश - विभक्ति - कर्मों का बन्ध होनेपर तत्काल बन्धको प्राप्त कर्मों को जो द्रव्य मिलता है उसे प्रदेश कहते हैं। इसके दो भेद हैं- प्रथम बन्धके समय प्राप्त द्रव्य और द्वितीय बन्ध होकर सत्ता में स्थित द्रव्य । कसायपाहुडमें इस द्वितीयका हो निरूपण आया है । मोहनीय कर्मको लेकर स्वामित्व, काल, अन्तर, भंगविचय आदि दृष्टियोंसे विचार किया है । अनुभाग के दो प्रकार हैजीव भागाभाग और प्रदेशभागाभाग | पहले की चर्चा में कहा है कि उत्कृष्टप्रदेश - विभक्ति वाले जीव सब जीवोंके अनन्तमें भाग प्रमाण है । और अनुत्कृष्टप्रदेश-विभक्त्ति वाले जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभाग प्रमाण हैं । इस प्रकार इस प्रदेश विभक्ति अधिकारमें उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण प्रभूति कर्मों को स्थितियों का भी विचार किया गया है ।
५. बंधक-अधिकार में कर्मवगंणाओंका मिध्यात्व अविरति आदिके निमित्तसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे चार प्रकारके कर्मरूप परिणमनका कथन आया है । इस अधिकार में बन्ध और संक्रम इन दो विषयोंका व्याख्यान किया है । गुणधर भट्टारकने इस बन्धक अधिकारमें संक्रमका भी अन्तर्भाव किया है । बन्धके दो भेद बताये हैं - १. अकर्मबन्ध और २. कर्मबन्ध | जो कार्याणवर्गणाएं कर्मरूप परिणत नहीं हैं उनका कर्मरूप परिणत होना अकर्म
श्रुतषर और सारस्वताचार्य : ३७