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बन्ध है और कर्मरूप परिणत पुद्गलस्कन्धोंका एक कर्मसे अपने सजातीय अन्य कर्मरूप परिणमन करना कर्मबन्ध है। यह द्वितीय कर्मबन्ध भेद ही संक्रमरूप है। यही कारण है कि इस बन्धक अधिकारमें बन्ध और संक्रम इन दोनोंका समावेश हो जाता है । आचार्यने 'कदि पयडीओ बन्धदि' आदि २३ संख्यक गाथामें इस अधिकारका वर्णन किया है।
६. वेदक अधिकार इस आंधकारमें बताया है कि यह संसारो जोव मोहनीयकर्म और उसके अवान्तर भेदोंका कहाँ कितने काल तक सान्तर या निर. न्तर किस रूपमें वेदन करता है | इस अधिकारके दो भेद हैं-उदय और उदोरणा । उदीरणा सामान्यतः उदयविशेष हो है; किन्तु इन दोनोंमें अन्तर यह है कि कर्मों का जो यथाकाल फलविपाक होता है उसकी उदयसंज्ञा है और जिन कर्मो का उदयकाल प्राप्त नहीं हुआ उनको उपायविशेषसे पचाना उदोरणा है । इस अधिकारको गुणधरने चार गाथासूत्रोंमें निबद्ध किया है। यहाँ उदोरणा, उदय और कारणभत बाह्य सामग्रीका निर्देश किया गया है। प्रथम पाद द्वारा उदीरणा सुचित की गयी है । द्वितीय पाद द्वारा विस्तार सहित उदय सूचित किया है और शेष दो पादों द्वारा उदयालिके भीतर प्रविष्ट हई उदयप्रकृत्तियों और अनुदयप्रकृतियोंको ग्रहण कर प्रवेशसंज्ञावाले अर्थाधिकारका सूचन किया है। ____ गाथाके पूर्वार्द्धका स्पष्टीकरण करनेके पश्चात् उत्तरार्द्ध में बताया है कि क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलोंको निमित्त कर कर्मों का उदय और उदोरणारूप फलविपाक होता है। यहां क्षेत्रपदसे नरकादिगतियोंका क्षेत्र, भवपदसे एकइन्द्रियादि पर्यायोंका, कालपदसे वसन्त, ग्रीष्म और वर्षा आदिका एवं पुद्गलपदसे अन्ध, ताम्बूल, वस्त्र, आभरण आदि पुद्गलोंका ग्रहण किया है। ___ उदीरणाके समग्र विवेचन के पश्चात् माथाके उत्तरार्द्धमें उदयका कथन किया है । उदीरणाके मूलप्रकृति उदोरणा और उत्तरप्रकृति उदोरणा ये दो भेद किये गये हैं। उत्तरवर्ती टोकाकारोंने १७ अनुयोगवारोंका आश्रय लेकर उदीरणाओंका विस्तृत विवेचन किया है।
वंदक अधिकारको दूसरी गाथाका दूसरा पाद है 'को व केय अणुभागे' अर्थात् कौन जीव किस अनुभागमें मिथ्यात्व आदि फर्मों का प्रवेशक है। गाथासूत्रके इस पादको व्याख्या चूर्णिसूत्रकार और टीकाकारोंने विस्तारपूर्वक की है।
७. उपयोगाधिकार में जीवके क्रोध, मान, मायादिरूप परिणामोंको उपयोग कहा है। इस अधिकारमें चारों कषायोंके उपयोगका वर्णन किया गया है । और बतलाया है कि एक जीवके एक कषायका उदय कितने काल तक रहता ३८ : तीथंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा