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है और किस गत्तिके जीवके कौन-सी कषाय बारबार उदयमें आती है। एक भवमें एक कषायका उदय कितने बार होता है और एक कषायका उदय कितने भवों तक रहता है। जितने जीव वर्तमान समयमें जिस कषायसे उपयुक्त हैं क्या वे उत्तने ही पहले उसी कषायसे उपयुक्त थे? और आगे भी क्या उपयुक्त रहेंगे ? आदि कषायविषयक शासष्य बातोंका विवेचन इस अधिकारमें किया है।
८. चतुःस्थान अधिकार-वातियाकर्मों की फलदानशक्तिका विवरण लता, दारु, अस्थि और शेलरूप उपमा देकर किया गया है। इन्हें क्रमशः एकस्थान, द्विस्थान, त्रिस्थान और चतुःस्थान भी कहा गया है।
इस प्रस्तुत अधिकारके नामकरणका कारण भी उक्त चार स्थानोंका रहना हो है। उपमाओं द्वारा क्रोधको पाषाणरेखाके समान, पृथ्वीरेखाके समान, बालरेखाके समान और अलरेखाके समान बसाया है। जिस प्रकार जलमें खोपी हुई रेस्वः सुरत हिट होती है और बाणु, मृत्यी और पाषाणपर खीधीं गई रेखाएँ उसरोत्तर अधिक समयमें मिटती हैं, उसी प्रकार हीनाधिक कालकी अपेक्षासे क्रोधके भी चार स्थान हैं । इसी क्रमसे मान, माया और लोभके भी चार-चार स्थानोंका निरूपण किया है । इसके अतिरिक्त चारों कषायोंके सोलह स्थानोंमेंसे कौन-सा स्थान किस स्थानसे अधिक होता है और कोन किससे हीन होता है, कोन स्थान सर्वघाती है, कोन स्थान देशघाती है ? आदिका विचार किया गया है।
९. व्यञ्जन अधिकार-व्यञ्जनका अर्थ पर्यायवाची शब्द है। इस अधिकारमें क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों हो कषायोंके पर्यायवाचक शब्दोंका प्रतिपादन किया गया है। क्रोधके पर्याय रोष ,अक्षमा, कलह, विवाद आदि बतलाये हैं। मानके पर्याय, मान, मद, दर्प, स्तम्भ, परिभव तथा मायाके, माया, निकृति, वंचना, सातियोग और अनऋजुता आदि बतलाये गये हैं। लोभके पर्यायोंमें लोभ, राग, निदान, प्रेयस, मी आदि बतलाये गये हैं ! इस प्रकार विभिन्न पर्यायवाची शब्दों द्वारा कषायविषयोंपर विचार-विमर्श किया गया है।
१०. दर्शनमोहोपशमनाधिकार-जिस कर्मके उदयमें आनेपर जीवको अपने स्वरूपका दर्शन-साक्षात्कार और यथार्थ प्रतीति न हो उसे दर्शनमोहकर्म कहते हैं । इस कर्मके परमाणुओंका एक अन्तर्मुइसके लिए अभाव करने या उपशान्तरूप अवस्था करनेको उपशम कहते हैं । इस दर्शनमोहके उपशमनकी अवस्था में
श्रुतपर और सारस्वताचार्य : ३९