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जीवको अपने वास्तविक स्वरूपका एक अन्तर्महूर्तके लिए साक्षात्कार हो जाता है । इस साक्षात्कारकी स्थितिमें जो उसे आनन्द प्राप्त होता है वह अनिर्वचनीय है । दर्शनमोहके उपशमन करने वाले जीटके परिणाम कैसे होते हैं, उसके कौन-सा योग होता, कौन-सा उपयोग रहता है। कौन-सी कषाय होती है और कौन-सी लेश्या, आदि बातोंका निरूपण करते हुए उन परिणामविशेषोंका विस्तारसे वर्णन किया गया है। दर्शनमोहके उपशमको चारों गतियोंके ही जीव कर सकते हैं। पर उन्हे संज्ञी, पञ्चेन्द्रिय और पर्याप्तक होना चाहिए। इस अधिकारके अन्तमें प्रथमोपशम-सम्यक्त्वीके विशिष्ट कार्यों और अवस्थाओंका वर्णन भी आया है।
११. दर्शनमोक्षपणा अधिकार-दर्शनमोहकी उपशम अवस्था अन्तमहत तक ही रहती है। इसके पश्चात् वह समाप्त हो जाती है। और जीव पुनः आत्मदर्शनसे वंचित हो जाता है । आत्मसाक्षात्कार सर्वदा बना रहे, इसके लिए दर्शन प्रोडका क्षय आवश्यक है। इसके लिये उिन प्रमुख बातोंको आवश्यकता होती है उन सबका विवेचन इस अधिकारमें किया गया है । दर्शनमोहके क्षयका प्रारम्भ कर्मभूमिमें उत्पन्न मनुष्य ही कर सकता है और इसकी पूर्णता चारों गतियों में की जा सकती है । दर्शनमोहके क्षपणका काल अन्तर्मुहर्त है। इस क्षपणक्रियाके समाप्त होनेके पूर्व हो यदि उस मनुष्यको मृत्यु हो जाय तो वह अपनी आयुबन्धके अनुसार यथासंभव चारों ही गतियोंमें उत्पन्न हो सकता है। दर्शनमोहके क्षपणका प्रारम्भ करने वाला मनुष्य अधिकसे-अधिक तीन भव और धारण करके मुक्तिलाभ करता है । इस अधिकारमें दर्शनमोहक क्षपण की प्रक्रिया और तत्सम्बन्धी साधन-सामग्रीका निरूपण किया गया है।
१२, संयमासंयमलब्धि अधिकार-आत्मस्वरूपका साक्षात्कार होते ही जीव मिथ्यात्वरूप पंकसे निकलकर निर्मल सरोवरमें स्नान कर आनन्दमें निमग्न हो जाता है । उसको विचारधारा सांसारिक विषयवासनासे दुर हो संयमासंयमकी प्राप्तिकी ओर अग्रसर होती है। शास्त्रीय परिभाषाके अनुसार अप्रत्याख्यानावरणकषायके उदयके अभावसे देशसंयमको प्राप्त करने वाले जीवके जो विशुद्ध परिणाम होते हैं उसे संयमासंयमलब्धि कहते हैं। इसके निमित्तसे जोब श्रावकके व्रतोंको धारण करने में समर्थ होता है। इस अधिकारमै संयमासंयमलब्धिके लिये आवश्यक साधन-सामग्रियोंका विस्तारपूर्वक कथन किया है।
१३. संयमलब्धि अधिकार-प्रत्याख्यानावरणकषायके अभाव होनेपर आत्मामें संयमलब्धि प्रकट होती है, जिसके द्वारा आत्माको प्रवृत्ति हिंसादि ४० : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा