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इस प्रकार समस्त खुद्दाबन्धमें १, ५८२ सूत्र हैं। इनमें कर्मप्रकृतिप्राभृतके बन्धक अधिकारके बन्ध, अबन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान नामक चार अनुयोगों से बन्धकका प्ररूपण किया गया है । इसे खुद्दकबन्ध कहनेका कारण यह है कि महाबन्धको अपेक्षा यह बन्धप्रकरण छोटा है। ३. बंषसामित्तविषय (बन्धस्वामित्वविषय) ___ इस तृतीय खण्डमें कर्मोंकी विभिन्न प्रकृतियोंके बन्ध करनेवाले स्वामियोंका विचार किया गया है । यहाँ विचपशब्दका अर्थ विचार, मोमांसा और परीक्षा है। यहां इस बातका विवेचन किया है कि कौन-सा कर्मबन्ध किस गणस्थान और मार्गणामें संभव है। अर्थात् कर्मबन्धके स्वामो कौनसे गणस्थानवर्ती और मागंणास्थानवतॊ जोव हैं। इस खण्डमें कुल ३२४ सूत्र हैं। इनमें आरम्भके ४२ सूत्रोंमें गुणस्थान-क्रमसे बन्धक जीवोंका प्ररूपण किया है। कर्मसिद्धान्तकी अपेक्षा किस गुणस्थानमें भेद और अभेद विवक्षासे कितनी प्रकृतियोंका कौन जीव स्वामी होता है, इसका विशद विवेचन किया गया है। ४. देवनाखण्ड
कर्मप्राभसके २४ अधिकारोंमेंसे कृति और वेदना नामक प्रथम दो अनुयोगोंका नाम वेदना-खण्ड है। सूत्रकारने प्रारममें मंगलाचरण किया है तथा इसी चतुर्थ खण्डके प्रारंभमें पुनः भी मंगलसूत्र मिलते हैं। अतः यह अनुमान सहजमें लगाया जा सकता है कि प्रथम बारका मंगल प्रारंभके तीन खण्डोंका है और द्वितीय बारका मंगल शेष तीन खण्डोंका । ग्रन्थके आदि और मध्यमें मंगल करनेका जो सिद्धान्त प्रतिपादित है उसका समर्थन भी इससे हो जाता है। कृतिअनुयोगद्वारमें ७५ सूत्र है, जिनमें ४४ सूत्रोंमें मंगलस्तवन किया गया है । शेष सूत्रोंमें कृत्तिके नाना भेद बतलाकर मूलकरण कृतिके १३ भेदोंका स्वरूप बतलाया गया है।
द्वित्तीय प्रकरणका १६ अधिकारोंम विवेचन किया गया है। अधिकारोंकी नामावलो सूत्रानुसार निम्न प्रकार है
१. निक्षेप-३ सूत्र २. नय-४ सूत्र ३. नाम-४ सूत्र ४. द्रव्य-१३ सूत्र ५. क्षेत्र---९९ सूत्र ६. काल-२७९ सूत्र ७. भाव-३१४ सूत्र
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ६९