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अन्तरप्ररूपणामें १५१ सूत्र हैं । मार्गणाक्रमसे जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालका विशद विवेचन किया गया है ।
भंगविचयमें २३ सूत्र हैं। किन मार्गणाओं में कौन-से जीव सदैव रहते और कौन-से जीव कभी नहीं रहते, का वर्णन किया है। बताया गया है कि नरकादि गतियों में जीव सदेव नियमसे निवास करते हैं । किन्तु मनुष्य अपर्याप्त कभी होते हैं और कभी नहीं भी होते। इसी प्रकार वक्रियिकमिश्र आदि जीवोंकी मार्गणाएँ भी सान्तर हैं ।
द्रव्यप्रमाणानुगममें १७१ सूत्र हैं। गुणस्थानको जोड़कर मार्गणाक्रमसे जीवोंकी संख्या, उसीके आश्रयसे काल एवं क्षेत्रका प्ररूपण किया गया है ।
क्षेत्रानुगममें १२४ और स्पर्शानुगम में २७९ सूत्र हैं। इन दोनोंमें अपनेअपने विषयके अनुसार जीवोंका विवेचन किया गया है ।
कालानुगममें ५५ सूत्र है। इसमें कालकी अपेक्षा नया जीवों कालका वर्णन किया है। अनादि-अनन्त, अनादि- सान्त, सादि-अनन्त एवं सादि- सान्त रूपसे कालप्ररूपणा की गई है ।
नाना जीवों की अपेक्षा अन्तरका वर्णन करनेवाले अन्तरानुगममें ६८ सूत्र हैं । बन्धकोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालकी प्ररूपणा की गई है ।
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भागाभागानुगममें ८८ सूत्र हैं। इस अनुगममें मार्गणानुसार अनन्तवं भाग, असंख्यात्तवें भाग संख्यातवें भाग तथा अनन्त बहुभाग, असंख्यात बहुभाग, संख्यात बहुभाग, रूपसे जीवोंका सर्वजीवोंकी अपेक्षा प्रमाण बतलाया गया है । एक प्रकार से इस अनुगममें जीवोंकी संख्याओंपर प्रकाश डाला गया है तथा परम्पर तुलनात्मक रूपसे संख्या बतायो गई है । यथा - नारकी जीवोंका विवेचन करते हुए कहा गया है कि वे समस्त जीवोंकी अपेक्षा अनन्तवें भाग हैं । इस प्रकार परस्पर में तुलनात्मक रूपसे जीवोंकी भाग -अभागानुक्रममें संख्या बतलायी गई है।
अल्पबहुत्व - अनुगममें १०६ सूत्र हैं, जिनमें १४ मार्गणाओंके आश्रयसे जीवसमासोका तुलनात्मक द्रव्यप्रमाण बतलाया गया है। गतिमार्गणा में मनुष्य सबसे थोड़े हैं। उनसे नारकी असंख्यगुणे हैं। देव नारवियों से असंख्यगुणे हैं । देवोंसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं तथा तियंच देवोंस भी अनन्तगुणे हैं ।
अन्तिम चूलिका महादकके रूपमें है । इसमें ७९ सूत्र हैं। इस चूलिका में मार्गणाविभागको छोड़कर गर्भोपकान्तिक मनुष्य- पर्याप्तसे लेकर निगोद जीवों तकके जीवसमासोंका अल्पबहुत्व प्रतिपादित है। जीवोंकी सापेक्षिक राशिके ज्ञानको प्राप्त करने के लिए यह चूलिका उपयोगी है ।
६८ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा