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चतुस्त्रिशत्तम पर्व में चक्रवर्ती कैलाससे उतरकर अयोध्याकी ओर बढ़ता है । यहाँ चक्ररत्न नगरीके भीतर प्रविष्ट नहीं होता, निमितज्ञानियों द्वारा भाइयों को विजित करने की बात झालकर करत उके पास दूत भेजता है । बाहुबलीको छोड़ भारत के अन्य सब भाई ऋषभदेवके चरणमूलमें जाकर दीक्षित हो जाते हैं ।
पञ्चत्रिंशत्तमपत्र में बाहुबलिद्वारा भरतका युद्ध निमन्त्रण स्वीकार कर लिया जाता है । षट्त्रिंशत्तम पर्व में भरत और बाहुबलिके नेत्र, जल और मल्लयुद्धका वर्णन आया है । उक्त तीनों युद्धों में बाहुबलिको विजयी देखकर भरत कुपित हो चक्ररत्नका उपयोग करते हैं, जिससे बाहुबलि विरक्त हो जिनदीक्षा ग्रहण कर लेते हैं । सप्तत्रिंशत्तम पर्व में चक्रवर्तीके अयोध्या नगरीमें प्रवेशका वर्णन आया है । अष्टत्रिंशत्तम पर्वमे भरतद्वारा अणुव्रतियोंको अपने घर बुलाये जानेका उल्लेख आता है। भरत इस सन्दर्भ में ब्राह्मण वर्णकी स्थापना करते हैं । एकोनचत्वारिंशत्तम और एकचत्वारिंशत्तम पर्वो में क्रियाओं और संस्कारोंका वर्णन आया है । द्विचत्वारिंशत्तम पदमें राजनीति और वर्णाश्रमधर्मका उपदेश अंकित है । त्रिचत्वारिंशत्तम और चतुश्चत्वारिंशत्तम पर्वो में जयकुमारका सुलोचनाके स्वयंवर में सम्मिलित होना तथा अन्य राजाओंके साथ युद्ध करनेका वर्णन आया है ।
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पञ्चचत्वारिंशत्तम पर्व में जयकुमार और सुलोचनाके प्रेम-मिलनका चित्रण आया है । जयकुमार सुलोचनाको पटरानी बनाता है । षट्चत्वारिंशत्तमपर्व में जयकुमार और सुलोचनाके अपने पूर्व भवका स्मरणकर मूर्छित होनेका वर्णन आया है । अन्तिम सप्तचत्वारिंशत्तम पर्व में पूर्वभवावलीको चर्चा करते हुए कहा है कि जयकुमार संसारसे विरक्त हो जाता है और दीक्षित हो ऋषभदेव के समवशरण में गणवरपद प्राप्त करता है । चक्रवर्ती भरत दाक्षा ग्रहण करता है, और उसे तत्काल केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। भगवान ऋषभदेव अन्तिम बिहार करते हैं और कैलासपर्वतपर उन्हें निर्वाणप्राप्ति हो जाती है ।
इस प्रकार आदिपुराण में ऋषभदेव के दस पूर्वभवोंकी कथाएँ आयो है । दोनों शलाकापुरुषोंका विस्तृत जीवन-परिचय इस पुराण में अकित है।
इस ग्रन्थके ४२ वर्ष (वर्ग) जिनसेनने लिखे हैं और उनको मृत्यु हो जानेपर शेष पाँच पर्व उनके शिष्य गुणभन्ने लिखे हैं । सम्पूर्ण ग्रन्थ 'महापुराण' के नामसे प्रसिद्ध है और सुयोग्य गुरु-शिष्य को यह अनुपम कृत्ति मानी जाती है । ३. जयधवलाटोका
कषायप्राभूत के प्रथम स्कन्धको चारों विभक्तियों पर जयधवला नामको
श्रुतषर और सारस्वताचार्य: ३४७