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ग्रन्थकी जयधवला-टीकामें आचार्य वीरसेनने आगमदष्टिसे सूत्रशैलीका लक्षण बतलाते हुए लिखा है
सुत्तं गणहरकहियं तहेय पत्तेयबुद्धकहियं च ।
सुदकेवलिणा कहियं अभिण्णदसपुब्धिकहियं च ॥' अर्थात् जो गणघर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्नदसपूर्वियों द्वारा कहा जाम नहर है।
अब यहाँ प्रश्न यह है कि गणधर भट्रारक न तो गणधर हैं, न प्रत्येकबुद्ध हैं, न श्रुतकेवली हैं और न अभिन्नदशपूर्शी हैं। अतः पूर्वोक्त लक्षणके अनुसार इनके द्वारा रचित गाथाओंको सूत्र कैसे माना जाय ? इस शंकाका समाधान करते हुए प्राचार्य वीरसेनने लिखा है कि आगमदष्टिसे सत्र न होने पर भी शेलीको दृष्टिसे ये सभी गाथाएँ सूत्र हैं--'इदि वयणादो णेदाओ गाहाओ सुत्तं गणहर-पत्तेयबुद्ध-सूदकेवलि-अभिण्णदसपूवीसु गुणहरभडारयस्स अभावादी; ण, णिद्दोसापक्व र सहेजपमाहि सुत्तेण सित्तमत्यि त्ति सुत्तत्तुवलंभादो।' अर्थात् गुणधर भट्टारकको गाथाएं निर्दोष, अल्पाक्षर एवं सहेतुक होनेके कारण सूत्रके समान हैं।
सूत्रशब्दका वास्तविक अर्थ बाजपद है। तीर्थकरके मुखसे निस्सृत बोजपदोंको सूत्र कहा जाता है और इस सूत्रके द्वारा उत्पन्न होनेवाला ज्ञान सुत्रसम कहलाता है
'इदि वयणादा तिस्थयरबयणचिणिम्गयबीजपदं सुत्तं । तेण सुत्तेण समं वट्टीद उप्पदि त्ति गणहरदेवम्मि टिदसुदणाणं सुत्तसम' ।'
बन्धन अनुयोगद्वारमें सूत्रका अर्थ श्रुतकेवली या द्वादशांगरूप शब्दागम लिया गया है और ध्रुतकेचलीके समान श्रुतज्ञानको भी सूत्रसम कहा है; पर कृतियनुयोगद्वारमें जो सूत्रको परिभाषा बतलाया गया है उसके अनुसार द्वादशांगका सूत्रागममें अन्तर्भाव न होकर ग्रन्थागममें अन्तर्भाव होता है। यतः कृतिअनुयोगद्वारमें गणधर द्वारा रचे गये द्रव्यश्रुतको ग्रन्थागम कहा है। ___ आचार्य वीरसेनका अभिमत है कि सूत्रको समग्र परिभाषा जिनेन्द्र द्वारा कथित अर्थपदोंमें ही पायी जाती है. गणधरदेवके द्वारा ग्रथित द्वादशांगमें नहीं । इस विवेचनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि यद्यपि गुणधर आचार्य द्वारा विरचित 'कमायपाहुड' में आगमसम्मत सूत्रकी परिभाषा घटित नहीं होती; पर १. जयधवलाटीका, प्रथम खण्ड, १० १५३. २. कृति अ० १० आ. पृ० ५५६ । ३२ : तीर्थकर महावोर और उनकी आनार्य-परम्परा