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अपेक्षा अर्वाचीन है । अतः गुगधरका समय वि० पू० प्रथम शताब्दी मानना सर्वथा उचित है । जयधवलाकारने लिखा है
“ पुणो ताओ चैत्र सुलगााओ आइरियपरंपराएं आगच्छमाणीओ अज्जम - खुणा गहत्थीणं गत्ताओ । पुत्रो तेमि दोन्हं पि पादमूले असोदिसदगाहाणं गुणहर मुहकमलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवस भडारएण पवयण वच्छले चुणितं कथं ।
अर्थात् गुणधरानायके द्वारा १८० गाथाओं में कसायपाहुडका उपसंहार कर दिये जाने पर वे हा सूत्रगाथाएँ आचार्य परम्परासे आती हुई आयमक्षु और नागस्तिको प्राप्त हुईं। पश्चात् उन दोनों ही आचार्य के पादमूलमें बैठकर गुणधराचार्य के मुखकमलसे निकली हुई उन १८० गाथाओंके अर्थको भले प्रकारसे श्रवण करके प्रवचनवात्सल्य से प्रेरित हो यतिवृषभ भट्टारकने जनपर चूणिसूत्रोंकी रचना की । इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि आचार्य गुणधरने महान् विषयको संक्षेप में प्रस्तुत कर सूत्रप्रणालीका प्रवत्तन किया । गुणधर दिगम्बर परम्परा के सबसे पहले सूत्रकार हैं ।
रचना
गुणधराचार्यने 'कसायपाहुड', जिसका दूसरा नाम 'पेज्जदोसपाहुड' भी है, की रचना की है । १६०० विषयको संक्षेप में एकसौ
अस्सी गाथाओं में ही उपसंहृत कर दिया है ।
'पेज' शब्दका अर्थ राग है । यतः यह ग्रन्थ राग और द्वेषका निरूपण करता है । क्रोधादि कषायको रागद्वेष परिणति और उनकी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेशबन्ध सम्बन्धी विशेषताओं का विवेचन हो इस ग्रन्थका मूल वर्ण्य विषय है। यह ग्रन्थ सूत्रोलीमें निबद्ध है । गुणधरने गहन और विस्तृत विषयको अत्यन्त संक्षेपमें प्रस्तुत कर सूत्रपरम्पराका आरंभ किया है। उन्होंने अपने ग्रन्थके निरूपणकी प्रतिज्ञा करते हुए गाथाओंको सुनगाहा कहा हैगाहासदे असीदे अत्थे पण्णरसधा वित्तम्मि | वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा
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अम् ॥ २ ॥
स्पष्ट है 'कसायपाहुड' की शैली गाथासूत्र शैली है। प्रश्न यह है कि इन गाथाओं को सूत्रगाथा कहा जाय अथवा नहीं ? विचार करनेसे ज्ञात होता है कि 'कसायपाहूड' की गाथाओं में सूत्रशैलीके सभी लक्षण समाहित है। इस
१. फसायपाहुडसुत, भाग १ ० ८८. १. कसायाहुत गाथा २.
श्रुतघर और सारस्वताचार्य ३१