________________
८. प्रश्नोत्तरशैलीमें शंका-समाधानपूर्वक शिक्षा देने में कुशल थे। ९. महनीय विषयको संक्षेप में प्रस्तुत करना भी उन्हें आता था। १०. आग्रायणीयपूर्वक पञ्चम वस्तुके चतुर्थ प्राभृतके व्याख्यानकर्ता थे।
११. पाठन, चितन एवं शिष्य-उद्बोधनको कलामें पारंगत थे । पुष्पबन्त और उनका रचना
पुष्पदन्त और भूतबलिका नाम साथ-साथ प्राप्त होता है, पर प्राकृत पट्टावली में पुष्पदन्तको भूतबलिसे ज्येष्ठ माना गया है। धरसेनके पश्चात् पुष्पदन्तका कार्य-काल ३० वर्षका बताया है। पुष्पदन्त और भूतबलि दोनों ही धरसेनाचार्यके निकट श्रुतको शिक्षा प्राप्त करने गये थे 1 शिक्षा-समाप्तिके पश्चात् सुन्दर दाँतोंके कारण इनका नाम पुष्पदन्त पड़ा था।
विवध श्रीधरके श्रुतावतारमें भविष्यवाणोके रूपमें जो कथा दी गई है उससे पृष्पदन्त और भृतबलिके जीवन पर प्रकाश पड़ता है पर इस श्रुतावतारमें जिन तथ्योंकी विवेचना की विचारपौर है। बताया है-भरत क्षेत्रके बांमिदेश--ब्रह्मादेशमें वसुन्धरा नामकी नगरी होगी । वहाँके राजा नरवाहन और रानी सुरूपा पुत्र न होनेके कारण खेद-खिन्न होंगे । उस समय सुबुद्धि नामका सेठ उन्हें पद्मावतीको पूजा करनेका उपदेश देगा । तदनुसार देवीको पूजा करनेपर राजाको पुत्रलाभ होगा और उस पुत्रका नाम पद्म रखा जायगा। तदनन्तर राजा सहस्रकटचैत्यालयका निर्माण करायेगा और प्रतिवर्ष यात्रा करेगा। सेठ भी राजपाले स्थान-स्थानपर जिनमन्दिरोंका निर्माण करायेगा। इसी समय वसन्त ऋतुमें समस्त संघ यहाँ एकत्र होगा और राजा सेठके साथ जिनपूजा करके रथ चलावेगा। इसी समय राजा अपने मित्र मगधसम्राटको मुनीन्द्र हआ देख सुबुद्धि सेठके साथ विरक्त हो दिगम्बरी दोक्षा धारण करेगा। इसी समय एक लेखवाहक वहाँ आयेगा। बह जिनदेवको नमस्कार कर मुनियोंकी तथा परोक्षम धरसेन गुरुकी वन्दना कर लेख समर्पित करेगा । वे मुनि उसे बाचेंगे कि गिरिनगरके समीप गुफावासी धरसेन मुनीश्वर आनायणीय पूर्वकी पञ्चमवस्तुके चौथे प्राभृतशास्त्रका व्याख्यान आरंभ करने वाले हैं। धरसेन भट्टारक कुछ दिनों में नरवाहन और सुबुद्धि नामके मुनियोंको पठन, श्रवण और चिन्तन कराकर आसाढ़ शुक्ला एकादशीको शास्त्र समाप्त करेंगे। उनमेंसे एककी भूत रात्रिको बलिविधि करेंगे और दूसरेके चार दांतोंको सुन्दर बना देंगे । अतएव भूत-बलिके प्रभावसे नरवाहन मुनिका नाम भूतबलि और चार दाँत समान हो जानेरो मुबुद्धिमुनिका नाम पुष्पदन्त होगा। १. श्रुतावतार, माणिकनन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थाङ्क २१, सिद्धान्तसारादिसंग्रह
पृ० ३१८-३१७ ५० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आमार्ग