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से शरीरनामकर्मके पाँच भेदोंके संयोगी भेद बतलाये हैं। गाथा २८ में अंगोपांगके भेद आये हैं। गाथा २९ ३० ३१ और ३२ में किस संहननवाला जीव मरकर किस नरक और किस स्वर्ग तक जन्म लेता है, यह कथन किया है । ३३वीं गाथा में उष्णनामकर्म और आतपनामकर्मके उदयकी चर्चा की गयी है । इस प्रकार कर्मो को विशेष विशेष प्रकृतियों के सम्बन्धमें कथन आया है। कर्मप्रकृतिको विभिन्न स्थितियोंको अवगत करने के लिए यह कर्मकाण्डग्रन्थ अत्यन्त उपादेय है ।
बन्वोदय सत्वाधिकारमें कर्मोदयके बन्ध, उदय और सत्वका कथन आया है । स्तवके लक्षणानुसार कर्मकाण्डके इस दूसरे अधिकार में कर्मोके बन्ध, उदय और सत्वका गुमस्थान एवं मार्गणाओं में अन्वयपूर्वक कथन किया है । बन्धके प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका क्रमशः कथन किया हैं । प्रकृतिबन्धका कथन करते हुए यह बतलाया है कि किन-किन कर्मप्रकृतियोंका बन्ध किस-किस गुणस्थान तक होता है, आगे नहीं होता । यह कथन पञ्चसंग्रहमें भी है। गुणस्थानोंम आठों कर्मोंकी १२० प्रकृतियोंके बन्ध, अबन्ध और बन्धव्युच्छित्तिका कथन करनेके बाद १४ मार्गणाओं में भी वही कथन किया है । यह कथन पञ्चसंग्रह में नहीं मिलता। नेमिचन्द्राचार्यने षट्खण्डागम से लिया है।
प्रकृतिबन्धके पश्चात् स्थितिबन्धका कथन है। कर्मोंको मूल एवं उत्तरप्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और जघन्यस्थितिका निरूपण बन्धकोंके साथ किया यया है । इस विवेचनके लिये ग्रन्थकारने धवलाटोकाका आधार ग्रहण किया है।
तत्पश्चात् अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका वर्णन आया है। यह वर्णन
संग्रहसे मिलता-जुलता है । प्रदेशबन्धका कथन करते हुए पंचसंग्रहमें तो समयप्रत्रद्धका विभाग केवल मूलकमों में ही बतलाया है, पर कर्मकाण्ड में उत्तर प्रकृतियों में भी विभागका कथन किया है। कर्मकाण्डमें प्रदेशबन्ध के कारणभूत योगके भेदों और अवयवोंका भो कथन है । पर यह कथन पंचसंग्रहमें नहीं है । केवल घवला और जयधवलामें ही प्राप्त है । उदयप्रकरण में कमके उदय और उदीरणाका कथन गुणस्थान और मार्गणाओंमें है । अर्थात् प्रत्येक गुणस्थान और मार्गणा में प्रकृतियोंके उदय, अनुदय और उदय व्युच्छित्तिका वर्णन है । सत्वप्रकरण में गुणस्थान और मार्गणाओंमें प्रकृतियों को सत्वासत्त्व और सत्वविच्छुत्तिका कथन है। मार्गणाओं में बन्ध, उदय और सत्त्वका कथन अन्यत्र नहीं मिलता ! यह आचार्य नेमिचन्द्रकी अपनी विशेषता है ।
सत्वस्थानभंगप्रकरण में कहे गये सत्वस्थानका भंगों के साथ कथन किया है । प्रत्येक गुणस्थान में प्रकृतियों के सस्वस्थानके कितने प्रकार सम्भव हैं और उनके
घर और सारस्वताचार्य : ४२५