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इसके अनुसार इनका समय बीर नि० सं० ६३३के' पश्चात् ई. सन् प्रथमद्वितीय शताब्दीके लगभग होना चाहिए । डा. ज्योतिप्रसाद जैनने पुष्पदन्तका समय ई० सन् ५०-८० माना है। रखमाशक्ति और प्रतिभा
घबलामें आचार्य वोरसेनने बतलाया है कि बीस प्रकारको प्ररूपणाएं सूत्रोंके द्वारा की गयी हैं । अतः पुष्पदन्ताचार्यने जो 'बिसदिसुतं' कहा है उसका अभिप्राय सताको सूत्रोंगे भागनोर कीपर व गाओं सवारी है । षवलाकारने सत्प्ररूपणाके सूत्रोंको व्याख्या समाप्त करनेके पश्चात् लिखा है कि सत्सूत्रोंका विवरण समाप्त हो आनेके अनन्तर उनको प्ररूपणा करेंगे। इससे स्पष्ट है कि आचार्य पुष्पदन्तने सत्सूत्रोंको ही रचना को है; उसको प्ररूपणाका कथन नहीं किया। यद्यपि उन्होंने अनुयोगद्वारका नाम "संतपस्वणा" हो रखा है। ऐसी स्थितिमें पुष्पदन्ताचार्यके द्वारा रचे गये सूत्रोंको 'संतसुत्स' कहना अधिक उचित था; पर इस शब्दका प्रयोग न कर 'बीसदिसुस' क्यों कहा, इस सम्बन्धमें कोई सन्तोषजनक समाधान प्राप्त नहीं होता है।
इन्द्रनन्दिने लिखा है कि पुष्पदन्तने सौ सूत्रोंको पढ़ाकर जिनपालितको भूतबलिके पास भेजा; किन्तु सत्प्ररूपणाके सूत्रोंकी संख्या १७७ है। असः उनका यह कथन भी सतर्क प्रतीत नहीं होता। यह सत्य है कि सत्प्ररूपणाके १७७ सत्र पुष्पदन्ताचार्य द्वारा रचे गये हैं। अतः उत्थानिकामें घबलाकारने पुष्पदन्तका ही नामोल्लेख किया है।
इस ग्रन्थको रूपरेखाका निर्माण पुष्पदन्तके द्वारा ही हुमा होगा। यत्तः ग्रन्थ-निर्माणका आरंभ पुष्पदन्तने किया है। इन्होंने चौदह जीवसमासों और गुणस्थानोंके निरूपणके लिये आठ अनुयोगद्वारोंको ही जानने योग्य बतलाया है। ये आठ अनुयोगद्वार है-१. संतपरूवणा, २. द्रव्यप्रमाणानुगम, ३. क्षेत्रानुगम, ४. स्पर्शानुगम, ५. कालानुगम, ६.अन्तरानुगम,७. भावानुगम, और
१. प्राकृत-पट्टावलीमें भर्हत लिका काल २८ वर्ष, माघनम्दिका २१ वर्ष, परसेनका
१९ वर्ष और पुष्पदन्तका ३० वर्ष माना है। इस प्रकार वीर नि० • ६६३
समय आता है। २. The Jaina Sources of the History of Ancient India, p. 114. ३. सूत्राणि तानि शतमध्याप्य ततो भूतबलिगुरोः पाश्र्वम् । तदभिप्रायं ज्ञातुं प्रस्थापयदगमदेषोऽपि ।।
-श्रुतावतार, श्लोक संख्या १३६. । श्रुतदर और सारस्वताचार्य : ५६