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दिक सब सामग्री और मिथ्यादृष्टि पापियोंका संग सब सरहसे मोहकषायको उत्पन्न करते हैं । इससे ही मनमें कषायरूपी अग्नि दहकती रहती है, जो इसका त्याग करता है, वही सच्ची शान्ति और सुखको पाता है ।
जोइन्दु कविकी अपेक्षा अध्यात्मशक्तिके निरूपक अधिक हैं। विषयासक्त जीवोंको परमात्माका दर्शन नहीं हो सकता। अतएव जिसने इस आसक्तिको दूर कर दिया है, उसीके हृदयमें परमात्माका निवास सम्भव होता है । आचार्य इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुये बतलाते हैं
"जसु हरिणच्छी हियवडए ससु णचि बंभु वियारि | एक्कहि केम समंति वढ बे खंडा पडियारि ।। णिय-मणि णिम्मलि गाणियह णिवसइ देउ अणाई ।
हंसा सरवरि लोणु जिम महु एहज पडिहाइ' । जो विषयों में लीन है, उसे परमात्माका दर्शन नहीं हो सकता। वीतराम निर्विकल्प परमसमाधिरूप अनाकुलता हो आनन्दका कारण है। जिसके चित्तमें स्त्रीसम्बन्धी विकार है, वह शुद्धात्मामें अपनेको स्थिर नहीं कर सकता । विकारी आत्मा बक्र मानी जाती है और वक्र वस्तुमें सरलका प्रवेश नहीं हो पाता। अतएव हाव-भाव और विनमसे दूषित चित्तवाला व्यक्ति ब्रह्म या आत्माका विचार नहीं कर सकता है।
ज्ञानियोंके रागादिमलरहित निज मनमें अनादि देव अराधने योग्य शुद्ध आत्मा निवास कर रही है। जिस प्रकार मानसरोवरमें हंस लीन हुआ बसता है, उसी प्रकार जो शुद्धात्मामें निवास करता है, उसीके रागादि दोष दूर होते हैं। इस प्रकार आचार्य जोइन्दुने अध्यात्मतत्त्वका निरूपण अपने दोनों अन्धोंमें किया है।
जैन रहस्यवादका निरूपण रहस्यवादके रूपमें सर्वप्रथम इन्हींसे आरम्भ होता है। यों तो कुन्दकुन्द, वट्टर और शिवार्यको रचनाओंमें भी रहस्यवादके तत्त्व विद्यमान हैं, पर यथार्थत: रहस्यवादका रूप जोइन्दुकी रचनाओं में ही मिलता है । वर्गसौने जिस रहस्यानुभूतिका स्वरूप प्रस्तुत किया है, वह रहस्यानुभूति हमें इनकी रचनाओंमें प्राप्त होती है-"यदि संसारके प्रति अनासक्सि पूर्ण हो जाय और वह अपने किसी भी ऐन्द्रिय प्रत्यय द्वारा किये किसी व्यापारके प्रति चिपके नहीं, तो यही एक कलाकारको आत्मा होगी, जैसा कि संसारने पहले देखा न होगा । वह युगपत् समानरूपसे प्रत्येक कलामें पारंगत होगा, १. परमात्मप्र०, दोहा १।१२१,१२२ ।
ध्रुतघर और सारस्वताचार्य : १५३