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रूपी देवालयमें है. यह निश्चयसे जान लेना चाहिये । जो व्यक्ति शरीरके बाहर अन्य देवालयोंमें देवकी तलाश करते हैं, उन्हें देखकर हंसी आती है ।
योगसारके अध्ययनसे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इसका विषय क्रमबद्ध नहीं है। यह एक संग्रह सा हैं। विषयनिरूपणक लिये क्रमबद्ध शैलीका अनुसरण नहीं किया गया है । फूटकर विषयोका संकलन जैसा प्रतीत होता है । यथा
विरला जाणहिँ तत्तु बुह विरला णिसुणहिं तत्तु ।
विरला झायहिं तत्तु जिय विरला धारहिँ तत्तु ॥ विरल जन तत्वको समझते हैं, विरले ही तत्त्वको सुनते हैं, बिरले ही तत्त्वका ध्यान करते हैं और विरले ही तत्त्वको धारण करते हैं। यह दोहा अपने स्थान पर नहीं है । खींच-तान कर क्रमबद्धता सिद्ध कर भी दी जाय, तो भी उचित स्थान पर इसका सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता।
९८३ संख्यक दोहेमें पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानोंके नाम गिनाये हैं । इसके आगे दोहा ९९से १०३ तक सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि और सूक्ष्मसाम्पदागय संयमका स्वरूप बतलाया गया है। यहां यथाख्यातका स्वरूप छूटा हुआ है । अन्समें बताया है कि जो सिद्ध हो चुके हैं, जो सिद्ध होंगे और जो वर्तमानमें सिद्ध हो रहे हैं, वे सब आत्मदर्शनसे ही सिद्ध हुए हैं । यही आत्मदर्शन इस ग्रन्थका मुख्य प्रतिपाद्य विषय है । प्रतिभा और वैदुष्य ___ जोइन्दु कविका अपभ्रंश भाषापर अपूर्व अधिकार है। इन्होंने अपने उक्त दोनों ग्रन्थों में आध्यात्मरसका सुन्दर चित्रण किया है । ये क्रान्तिकारी विचारधाराके प्रवर्तक हैं। इसी कारण इन्होंने बाह्य आडम्बरका वण्डन कर आत्मज्ञानपर जोर दिया है । कविने लिखा है
तत्तातत्तु मणेवि मणि जे थक्का सम-भावि ।
ते पर सुहिया इत्यु जगि जहँ रइ अप्प-सहावि ।। हे जीव ! जिस मोहसे अथवा मोह उत्पन्न करनेवाली वस्तुसे मनमें कषायभाव उत्पन्न हों, उस मोहको अथवा मोह-निभिसक पदार्थको छोड़, तभी मोहअनित कषायके उदयसे छुटकारा प्राप्त हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि विषया१. योगसार, गाथा १६ । ३. परमात्मप्रकाश २।४ ।।
१५२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा