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भी कुन्दकुन्दका नामान्तर घटित नहीं होता है। संभवतः यह नाम उमास्वातिका रहा है । संक्षेपमें कुन्दकुन्दका अपर नाम पद्मनन्दि अवश्य प्रमाणित होता है । गुरु-परम्परा
आचार्य कुन्दकुन्दके गुरुका क्या नाम था और उन्होंने किस गुरु-परम्पराको सुशोभित किया, इसके सम्बन्धमें संक्षेपमें विचार करना आवश्यक है ।
कुन्दकुन्द-प्रन्थोंके टोकाकार जयसेनाचार्यके मतानुसार ये कुमारनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य थे । नन्दिसंघको पट्टावली के अनुसार कुन्दकुन्दके गुरु जिनचन्द्र थे । कुन्दकुन्दने स्वयं अपने गुरुका नाम भद्रबाहु माना है ।
मथुरा से प्राप्त एक अभिलेख में उच्चनागर शाखा के एक कुमारनन्दिका निर्देश प्राप्त होता है । यह अभिलेख हुविष्क वर्षं सत्तासीका है । इस आधार पर भी कुमारनन्दिका गुरु-शिष्यत्व कुन्दकुन्दके साथ घटित नहीं होता । यतः उच्चनागर शाखा के साथ कुन्दकुन्दका सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार नन्दिसचकी पट्टावलि में माघनन्दि, जिनचन्द्र और कुन्दकुन्दका क्रमशः उल्लेख आता है । इससे यह फलित होता है कि माघनन्दिके पश्चात् जिनचन्द्र और जिनचन्द्रके पश्चात् कुन्दकुन्दको उत्तराधिकार प्राप्त हुआ होगा । अतः हमारा अनुमान है कि कुन्दकुन्दके गुरुका नाम 'जिनचन्द्र' होना चाहिए ।
कुन्दकुन्दले अपने 'बोधपाहुड' में अपनेको भद्रबाहु का शिष्य कहा है । पर इस सन्दर्भ में यह विचारणीय है कि कुन्दकुन्द श्रुतकेवली भद्रबाहुके साक्षात् शिष्य थे या पारम्पर्य ? कुन्दकुन्दने लिखा है
सद्दवियारो हूओ भासासुत्ते जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥ ६१ ॥ बारसयंगवियाण चउदसपुण्वं गवि उल वित्थ रणं । सुयणाणिभद्दवाहू गमयगुरू भयवओ जयऊ ॥ ६२॥
जिनेन्द्र - तीर्थंकर महावीरने अर्थ रूपसे जो कथन किया है वह भाषासूत्रोंमें शब्दविकारको प्राप्त हुआ है- अनेक प्रकारके शब्दों में प्रथित हुआ है । भद्रबाहु मुझ शिष्यने उन भाषासूत्रोंपरसे उसको उसी रूप में जाना है । और बारह अङ्गों एवं चौदह पूर्वक विपुल विस्तार के ज्ञाता श्रुतकेवली भद्रबाहुको 'गमकगुरु' कह कर उनका कुन्दकुन्दने जयघोष किया है।
१. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग १, किरण ४, पृ० ७८, यह पट्टावलि मूलतः इन्डियन एन्टीक्वयरी में प्रकाशित हुई है ।
२. बीघपाहुड, गाथा ६१-६२ ।
श्रुतवर और सारस्वताचार्य : १०३