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द्वितीय गाथाके आलोक में प्रथम गाथाका अध्ययन करनेसे यह स्पष्ट होता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु कुन्दकुन्द के साक्षात् गुरु नहीं थे, 'गमक गुरु थे । आचार्य श्रीजुगलकिशोर मुख्तारने उक्त दोनों गाथाओं में प्रथम गाथाका सम्बन्ध द्वितीय भद्रबाहु के साथ और द्वितीय गाथाका सम्बन्ध श्रुतकेबली मद्रबाहु के साथ बतलाया है। उन्होंने लिखा है- "इकसठवीं गाथामें कुन्दकुन्दने अपनेको भद्रबाहुका शिष्य प्रकट किया है। जो संभवतः भद्रबाहु द्वित्तीय जान पड़ते हैं । क्योंकि भद्रबाहु श्रुतवली के समय में जिनकथित श्रुतमें ऐसा विकार उपस्थित उपस्थित नहीं हुआ था, जिसे उक्त गाथा में ' सद्दवियारो हुमी भासासुत्तेसु जं जिणें कहिय इन शब्दों द्वारा सूचित किया गया है वह अविच्छिन्न चला आया था | परन्तु दूसरे भद्रबाहु के समय में ऐसी स्थिति नहीं थो-- कितना ही श्रुतज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था, वह अनेक भाषासूत्रोंमें परिवर्तित हो गया था । इससे इक्सटवीं गाथाके भद्रबाहु द्वितीय ही जान पड़ते हैं । बासहनी गाथायें उसी से प्रसिद्ध होनेवाले प्रथम भद्रबाहुका, जो कि बारह अङ्गों और चौदह पूर्वोके ज्ञाता श्रुतकेवली थे, अन्त्य मंगल के रूपमें जयधोब किया गया और उन्हें साफ तौर पर गमकगुरु लिखा है। इस तरह अन्तकी दोनों गाथाओं में दो अलग-अलग भद्रबाहुओं का उल्लेख होना अधिक युक्तियुक्त और बुद्धिगम्य जान पड़ता है।" मुस्तार साहबका उक्त कथन विचारणीय है । यहाँ दी भद्रबाहुओंका कथन न कर कुन्दकुन्दने पूर्व गाथा में प्रतिपादित भद्रबाहुके कथित गुरुत्वका गमक गुरुकं रूपमें उल्लेख आया है । 'गमक' शब्दका अर्थं शब्दकल्पद्रुममं 'गमयति, प्रापयति, बोधयति वा गमक', गम् + णिच् + व बोधक मात्र या सुझाव देनेवाला अथवा तत्त्व प्राप्ति के लिए प्रेरणा करनेवाला बतलाया है । मातंगलीला में गमकं पाण्डित्यवैदग्ध्ययोः' अर्थात् पाण्डित्य या वैदग्ध्य प्राप्तिको गमक कहते हैं । यहाँ पर 'गमक' शब्द 'परम्परया' या 'प्रेरणया' के रूप में प्रयुक्त है | अतएव 'गमक' शब्द परम्पराप्राप्त श्रुतकेवल के लिए ही व्यवहृत हुआ है । दो भद्रबाहुओं की कल्पना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है । भद्रबाहु केवल] कुन्दकुन्दके साक्षात् गुरु न होकर 'गमक गुरु या प्रेरक गुरु थे | श्री प० कैलाशचन्द्र शास्त्रीने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है ।
श्रवणबेलगोला के अभिलेखोंसे भी इस तथ्यको पुष्ट किया जा सकता है । यतः श्रुतकेवल भद्रबाहु अपने शिष्य सम्राट् चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिण भारत गये थे और वहां श्रवणबेलगोला स्थानमें समाधिमरण प्राप्त किया था। अतः दक्षिण में १. जैन साहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश, पृ० ९३ ।
२. मातंगलीला १।७ ।
३. कुन्वकुदप्राभृतसंग्रह, प्रस्तावना, पू० ११ १२ ।
१०४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा
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