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श्रुतकेवली भद्रबाहुको परस्पराका अस्तित्व सिद्ध होता है। कुन्दकुन्द मूल सघके आचार्य थे और दक्षिण भारतके निवासो । अतः इन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहुकी परम्परा प्रान हुई थी। इसी कारण कुन्दकुन्दने उन्हें 'गमकगुरु' कहा है । पट्टावलोके अनुसार इनके गुरुका नाम जिनचन्द्र और दादा गुरुका नाम मा.सन्द है। कुन्दकुन्धके जोवनमें घटित घटनाएं
आचार्य कुन्दकुन्दके जीवनमें प्रमुख दो घटनाओंके घटित होनेको कथा प्रसिद्ध है । एक है विदेहयात्रा और दूसरी है गिरनार पर्वतपर हुए दिगम्बर३ वेताम्बर वाद-विवादमें उनकी विजय । __ जहाँ तक विषयात्राको बात है, उस साधक धद्यपि आभलखीय या अन्य ऐतिहासिक प्रमाण अभीतक उपलब्ध नहीं हुए, किन्तु आचार्य देवसेन, आचार्य जयसन और श्रुतसागरसूरिके उल्लेख बतलाते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द विदेह गये थे और बहस भगवान सीमन्धर स्वामीका उपदेश ग्रहण कर लौटे थे तथा सोमन्धरस्वामीस प्राप्त दिव्यज्ञानका श्रमणोंको उपदेश दिया था। देवसेन ( ई० सन् ९ वीं शती) ने दर्शनसारमें लिखा है
जइ पउमणदिणाही सोमंघरसामिदिव्वणाणेण ।
ण विबोहद तो समणा कहं सुमग्गं पयाणति ।।४३५ इसमें कहा गया है कि यदि पद्धन्द्रिनाथ सीमन्धरस्वामोद्वारा प्राप्त दिव्य ज्ञानसे बोध न देते, तो श्रमण-मुनिजन सच्च मार्गको केसे जानते ।।
देवसेनका यह उल्लेख काफी प्राचीन है और उसपर सहसा अविश्वास नहीं किया किया जा सकता ।
इसी तरह आचार्य जयसेन ( ई. सन् १२ वीं शती) ने भी पञ्चास्तिकाय. को टोकाके आरम्भमें आचार्य कुन्दकुन्दके विदेहगमनको 'प्रसिद्धकथान्याय' बतलाते हुए उसकी स्पष्ट चर्चा की है।
षट्प्राभृतके संस्कृत-टीकाकार श्रुतसागरसुरिने भी टीकाके अन्तमें कुन्दकुन्दस्वामीके विदेहगमनका उल्लेख किया है।
ये उल्लेख अकारण नहीं हो सकते। वे अवश्य विचारणीय है। दिगम्बर-श्वेताम्बर वाद-विवादमें विजयप्राप्तिके भी उल्लेख मिलते है । शभचन्द्राचार्यने पाण्डवपुराणमें लिखा है कि कुन्दकन्दगणोने जयगिरिपर अपने प्रभावसे पाषाण-निर्मित सरस्वतीको वादिता-शास्त्रार्थकी बना दिया था। यथा
श्रुतपर और सारस्वतापार्य : १०५ ।