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"येन प्रणीतं पृथु धर्म-तीथं ज्येष्ठं जनाः प्राप्य जन्ति दुःखम् ।
गाङ्ग हृदं चन्दन-पर-शोतं गज-प्रवेका इव घर्मतप्ताः ।।"५ जिन्होंने उस महान् और ज्येष्ठ धर्मतीर्थका प्रणयन किया है, जिसका आश्रय पाकर भव्यजन दुःख-सन्तापपर उसी प्रकार विजय प्राप्त करते हैं, जिस प्रकार ग्रीष्मकालीन सूर्यके सन्तापसे सन्तप्त हुए बड़े-बड़े हाथो चन्दनलेपके समान शोतल गङ्गाको प्राप्त कर सूर्यके आतापजन्य दुःखको मिटा डालते हैं ।
यहाँ गंगाजलका उपमान चन्दनलेप है और धर्मतीर्थका उपमान गंगाजल है। जनका उपमान गज है। इस प्रकार इस पद्यमें संसार-आतापको शान्तिके लिए धर्मतीर्थका सामर्थ्य विभिन्न उपमानों द्वारा दिखलाया गया है ।
चन्द्रप्रभजिनकी स्तुति करते हुए उनको संसारका अद्वितीय चन्द्रमा कहा है तथा उपमा द्वारा आराध्यकी रूपाकृतिका मनोरम चित्र अंकित किया है
चन्द्रप्रभ चन्द्र-मरीचि-गौर चन्द्र द्वितीयं जगतोव कान्तम् ।
वन्देऽभिवन्दा गहतामृषीन्द्रं जिनं जित-स्वान्त-कषाय-बन्धम ॥२ चन्द्रकिरणके समान गौरवणसे युक्त चन्द्रप्रभजिन जगत्में द्वितीय चन्द्रमाके समान दीप्तिमान हैं, जिन्होंने अपने अन्तःकरणके कषायबन्धनको जीत अकपायपद प्राप्त किया है और जो ऋद्धिधारी मुनियोंके स्वामी तथा महात्माओं द्वारा वन्दनीय हैं।
इस पद्यमें 'चन्द्रमरीचिगौर' उपमान है, इस उपमान द्वारा चन्द्रप्रभतीर्थकरके गौरवर्ण शरीरकी आकृतिका सुन्दर अंकन किया है।
चन्द्रप्रभजिनके प्रवचनको सिंहका रूपक और एकान्तवादियोंको मदोन्मत्त गजका रूपक देकर कविने आराध्यके उपदेशकी महत्ता प्रदर्शित की है। इस प्रसंगमें रूपक-अलंकारको योजना बहुत ही सर्कसंगत है । यथा
"स्व-पक्ष-सोस्थित्य-मदाऽवलिप्ता वासिंह-नाविमदा वभूवुः ।
प्रवादिनो यस्य मदागण्डा गजा यथा केसरिणो निनादैः ।।"3 जिनके प्रवचनरूप सिंहनादोंको सुनकर अपने मतको सुस्थितिका घमण्ड रखनेवाले प्रवादिजन उसी प्रकार निर्मद हुए हैं, जिस प्रकार मद झरते हुए उन्मत्त हाथी केसरी--सिंहकी गर्जनाको सुनकर निर्मद हो जाते हैं । १. स्वयम्भूस्तोत्र, २०४। २. स्वम्भूस्तोत्र, ८१। ३. वही, ८१३ ।
पुप्तषर और सारस्वताचार्य : २०१