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चन्दन, चन्द्रकिरण, गंगाजल और मुक्ताओंको हारयष्टिकी शीतलताका निषेध कर शीतलनाथ तीर्थकरके वचनोंको आचार्य समन्तभद्रने शीतल सिद्ध किया है। प्रस्तुत सन्दर्भमै व्यतिरेक-अलंकार द्वारा उपमेयमें गुणाधिक्यका आरोप कर उपमानोंमें न्यून गुणका समावेश किया है। शीतलनाथ तीर्थकरके सद्गुणोंका उत्कर्ष यहाँ प्रस्तुत किया गया है । गुणत्व हो उत्कर्षापकर्षका आधार है। अत: तीर्थकरकी अमृतवाणीको शीतलताका चरम साधन मानकर उपमानोंके साधारण धर्मसे आधिक्य दिखलाया गया है । वाणीमें शीतलता और माधुर्यके साथ अमृतत्व भी है, जिससे वह चन्दन, चन्द्रकिरण आदिको अपेक्षा अधिक शोतलता प्रदान करनेकी क्षमता रखती है । यया
"न शीतलाश्चन्दनचन्द्र रश्मयो न गाङ्गमम्भो न च हारयष्ट्यः । यथा मुनेस्तेऽनध! वाक्य-रश्मयः शमाम्बुगर्भाः शिशिरा विपश्चिताम् ॥'
हे अनघ ! निरवद्य निर्दोष श्रीशीतलजिन ! आप जैसे प्रत्यक्षज्ञानी मुनिकी प्रशमजलसे बाप्लावित वाक्यरश्मियां संसार-तापको दूर करने के हेतु उतनी शीतल हैं, जितनी न तो चन्द्रकिरण शीतल है, न चन्दन है, न गङ्गाजल शीतल है और न मोतियोंको हाराष्ट्र ही। तात्पर्य यह है कि शीतलजिनकी अमृतवाणी चन्दन, चन्द्रकिरण, गङ्गाजल और मुक्ताहारयष्टिसे अधिक शीतल और सुखप्रद है। ___ कविताका विषय हृदयको अनुभूति है। अनुभूतिकी अवस्थामें समस्त स्नायुमण्डल तदनुकूल रूप धारण करता है और सच्चरित वाक्यालिम अपूर्व प्रवाह उत्पन्न हो जाता है। अनुभूतिके समयमें हृदयकी प्रधानतः दो अवस्थाएं होती हैं । ये अवस्थाएं हैं-१. उल्लास और २. विह्वलता । कवि जब उल्लसित होता है, तो वह गाता है । यही कारण है कि स्तोत्रोंके समय में कविकी तन्मयता चरमसीमाको पहुँच जाती है। बाराध्यके चरणोंमें वीतरागताकी प्राप्तिके लिए कवि अपनेको समर्पित कर देता है। भाव जहाँ उसके हृदयको उल्लसित और उद्वेलित करते हैं, वहां रमणीय वाक्यावलिके शब्द उसके हृदयको चमत्कारसे भर देते हैं।
चित्रकाव्यमें हृदयकी भावावस्था उतनी द्रवित नहीं होती, जितनी चमस्कारको योजना होनेसे कौतूहल । अतएव संस्कृतकाव्यमें सर्वप्रथम चित्र, श्लेष और यमकका प्रादुर्भाव हआ। भावावस्था में स्थायित्व नहीं रहता है, यतः भाव क्षणभरमें उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं, पर चमत्कृत दशा अधिक १. स्वयम्भूस्तोत्र, १०१। २०२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा