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१२. अनेकान्सका स्वरूप
१३. अनेकान्तमें भी अनेकान्तकी योजना १४. जैनदर्शनमें अवस्तुका स्वरूप १५. स्यात् निपातका स्वरूप १६. अनुमानसे सर्वज्ञकी सिद्धि १७. युक्तियों से स्याद्वादकी व्यवस्था १८. यसका तार्किक स्वरूप
१९. वस्तु द्रव्य- प्रमेयका स्वरूप
काव्य चमत्कारको दृष्टिसे भी समन्तभद्र अपने क्षेत्र में अद्वितीय हैं । इन्होंने चित्र और श्लेष काव्यका प्रारम्भ कर भारवि और माघके लिये काव्य क्षेत्रका विकास किया है । कवि समन्तभद्रने अपने स्तोत्र-काव्यों में शब्द और अर्थ इन दोनोंकी गम्भीरताका अपूर्व समन्वय बनाये रखनेकी सफल चेष्टा की है । शब्दसंघति, अलंकार-वैचित्र्य, कल्पनासम्पत्ति एवं तार्किक प्रतिभाका समवाय एकत्र प्राप्य है । प्रबन्धकाव्य न लिखने पर भी कतिपय पद्योंमें प्रौढ़ प्रबन्धाहमकता पायी जाती है । इतिवृत्तात्मक धार्मिक तथ्योंका समावेश भी काव्यशैली में मनोरमरूपमें हुआ है । कविप्रतिभा और दार्शनिकताका मणिकांचन संयोग श्लाघ्य है । उत्प्रेक्षाद्वारा आराध्य पद्मप्रभका चित्रण करता हुआ कवि कहता है
" शरीर - रश्मि - प्रसरः प्रभोस्ते बालार्क - रश्मिच्छवि राऽऽलिलेप । नराऽमराऽऽकोण सभां प्रभा वा शैलस्य पद्माभमणेः स्वसानुम् ॥'
अर्थात् हे प्रभो ! प्रातःकालीन सूर्यकिरणोंको छविके समान रक्तवर्णकी आभावाले आपके शरीरकी किरणोंके विस्तारने मनुष्य और देवताओंसे भरी हुई समवशरण सभाको इस प्रकार आलिप्त किया है, जैसे पद्मकान्तमणि पर्वतकी प्रभा अपने पार्श्वभागको आलिप्त करती है।
इस पद्यमें पद्मप्रभ तीर्थंकरकी रक्तवर्ण कान्ति द्वारा समवशरण सभा के व्याप्त किये जानेकी उत्प्रेक्षा पद्यकान्तमणिके पर्वतको प्रभासे की गयी है ।
कवि समन्तभद्र उपमा अलंकारके व्यवहारमें भी पटु हैं। उन्होंने भगवान् आदिनाथको अज्ञानान्धकारका विनाश करने के लिए चन्द्रमाका उपमान प्रदान किया है। कुछ पद्योंमें प्रयुक्त उपमान नवीन प्रतीत होते हैं । यथा
१. स्वम्भुस्तोत्र ६०३ ।
२. 'विधुन्वता तमः क्षपाकरेणेव गुणोत्करैः करैः । स्वम्भू स्तोत्र ११ ।
२०० तोकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा