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संयोग होकर द्वयणुकादि अवयवोमें क्रमशः पाक मानते हैं और कोई परमाणुओंमें किसी भी प्रकारको विकृति न होनेसे उनमें पाक - अग्निसंयोग न मान कर केव द्व्यणुकादिमें एक स्वीकार करते हैं । जो परमाणुओं में पाक नहीं मानते उनका कहना है कि परमाणु नित्य है और इसलिए वे द्वद्यणुकादि सभी अवस्थाओं में एकरूप बने रहते हैं। उनमें किसी भी प्रकारको अन्यता नहीं होती, अपितु सर्वदा अनन्यता विद्यमान रहती है। इसी मान्यताको आचार्य समन्तभने 'अणुओं का अनन्यतैकान्त' कहा है। इस मान्यता में दोषद्घाटन करते हुए बताया है कि यदि अणु द्व्यणुकादि संघात्तदशामें भी उसी प्रकारके बने रहते हैं, जिस प्रकार वे विभागके समय हैं, तो वे असंत ही रहेंगे और इस अवस्था में अवयवरूप पृथ्वी आदि चारों भूत भ्रान्त हो जायेंगे, जिससे अवयवी - रूप कार्य भी भ्रान्त सिद्ध होगा । इस प्रकार वैशेषिकों के अनन्यतैकान्तकी समीक्षा कर अनेकान्तवादको प्रतिष्ठा की है ।
समन्तभद्रकी कारिकाओंके अवलोकनसे उनका विभिन्न दर्शनोंका पाण्डित्य अभिव्यक्त होता है । प्रमाण, मायकल प्रमाणका विष समन्तभद्रने बहुत हो सूक्ष्मताले किया है। इन्होंने सद्-असद्वादकी तरह द्वैतअद्वैतवाद, शाश्वत अशाश्वतवाद, वक्तव्य-अवक्तव्यवाद, अन्यता- अनन्यतावाद, अपेक्षा अनपेक्षावाद हेतु अहेतुवाद, विज्ञान-बहिरर्थवाद, देव-पुरुषार्थवाद, पाप-पुण्यवाद और बन्ध-मोक्षकारणवादका विवेचन किया है।
डॉ० दरबारीलाल कोठियाने समन्तभद्र के उपादानोंका निर्देश करते हुए लिखा है कि उन्होंने जैनदर्शनको निम्नलिखित सिद्धान्त प्रदान किये हैं
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१. प्रमाणका स्वपराभासलक्षण
२. प्रमाणके क्रमभावि और अक्रमभावि भेदोंकी परिकल्पना
२. प्रमाणके साक्षात् और परम्परा फलोंका निरूपण
४. प्रमाणका विषय
५. नयका स्वरूप
६. हेतुका स्वरूप
७. स्याद्वादका स्वरूप
८. वाच्यका स्वरूप
९. वाचकका स्वरूप
१०. अभावका वस्तुधर्मनिरूपण एवं भावान्तरकथन ११. तत्त्वका अनेकान्तरूप प्रतिपादन
१. बातमीमांसा, वीरसेवा मन्दिर ट्रस्ट, सन् १९६७, प्रस्तावना, पू० ४५-४६ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्थं १९९