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सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबद्ध्यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते' ||
इदमेवेदशमेव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा । इत्यकम्पायसाम्भोवत्सन्मार्गऽसंशया रुचिः ॥
इदं शरणमज्ञानमिदमेव विजानताम् ।
इदमन्विच्छतांस्वर्गमिदमानन्त्यमिच्छताम् ।। अतएव विषयको प्राचीनताकी दृष्टिसे रत्नकरण्डकश्रावकाचारके कर्ता प्राचीन समन्तभद्र ही हैं। मनुस्मृति और रत्नकरण्डकधावकाचारके प्रकरणोंके अध्ययनसे यह स्पष्ट है कि रत्नकरण्डसे ही उक्त पद्य मनुस्मृतिमें संग्रहीत हैं। पद्योंमें थोड़ा-सा परिवर्तन किया गया है ।
जीवसिद्धि, तत्त्वानुशासन, प्राकृतव्याकरण, प्रमाणपदार्थ, कर्मप्रभृतटीका और गन्धहस्तिमहाभाष्य ये रचनाएं उपलब्ध नहीं है। अत: इनके मानन्ध नितेनन करना समान नहीं ! इन वजनाओंके केवल निर्देश ही जहांतहाँ मिलते हैं । अतएव अब हम आचार्य समन्तभद्रको काव्य-प्रतिमा एवं वेदुष्यपर प्रकाश डालना आवश्यक समझते हैं। प्रतिभा एवं चैबुष्य __समन्तभद्र अत्यन्त प्रतिभाशाली और स्वसमय, परसमयके ज्ञाता सारस्वत हैं। इन्होंने एकान्तवादियोंका निरसन कर अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा दार्शनिक शैलोमें की है । भाव और अभावरूप विरोधी युगलधर्मोको लेकर सप्तभंगात्मक वस्तुको सिद्ध किया है। क्रियाभेद, कारकभेद, पुण्य-पापरूप कर्मद्वेत, सुख-दुखरूप फलदैत, इहलोक-परलोकरूप लोकद्वैत, विद्या-अविद्यारूप ज्ञानद्वेत और बन्ध-मोक्षरूप जीवकी शुद्धाशुद्ध अवस्थाओंका चित्रण किया गया है। बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त आदि दर्शनोंकी मूल मान्यताओंका अध्ययन कर उनकी यथार्थ समीक्षा समन्तभद्रने की है। हम यहाँ उदाहरणके लिए वैशेषिकोंके परमाणुवादको लेते हैं। वैशेषिकोंमें कोई परमाणुओंमें पाक-अग्नि १. मनुस्मृति, ६ अध्याय, श्लोक ७४–चौखम्बा संस्करण । २. रत्नकरण्डकथावकाचार, प्रथम परिच्छेद, क्लोक ११ । ३. मनु०, ६ अध्याय, श्लोक ८४ ।। ४, म. दरवारीलाल कोठिया : आप्तमीमांसा, वीर सेवामन्दिर दृस्ट, सन् १९६७,
प्रस्तावना पृ० ९-१० ।
१९८ : तीर्थकर, महावीर और उनको आचार्य-परम्परा