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उसी शैली में की है जो शैली 'धम्मपद' में मिलती है । अतः मूढ़ताओंके विवेचनसन्दर्भसे रत्नकरण्डक श्रावकाचार के कर्त्ता प्राचीन समन्तभद्र हो सिद्ध होते है । 'धम्मपद' में बताया है
"न नग्गचरिया न जटा न पंका नानासका थण्डिलसायिका वा । रजोवजल्लं उककुटिकप्पधानं सोधेन्ति मच्चं अवितिष्ण कखं ॥ "
अर्थात् जिस पुरुषका सन्देह समाप्त नहीं हुआ है उसकी शुद्धि न नंगे रहने से, न जटासे, न कीचड़ लपेटनेसे, न उपवास करनेसे, न कठिन भूमि पर शयन करनेसे, न धूल लपेटने से और न उकड़ बैठने से होती है।
लोक - मूढ़ताएं विकसित होकर पांचवीं छठी शताब्दी के साहित्य में आडम्बरपूर्ण जीवनके विश्लेषण के रूपमें आयी हैं । अपभ्रंश साहित्य में इन लोक-मूढ़ताओंका रूप बाह्याडम्बर या बाह्य वेशके रूपमें उपस्थित है ।
रत्नकरण्डक श्रावकाचारकी प्राचीनताका एक सबल प्रमाण यह भी है कि इस ग्रन्थके कई पद्य मनुस्मृतिके वर्तमान संस्करणमें पाये जाते हैं । मनुस्मृतिका वर्तमान संस्करण ई० सत्की दूसरी-तीसरी शतोका है। यद्यपि यह संस्करण मी किसी प्राचीन मनुस्मृति के आधार पर प्रस्तुत किया गया है, तो भी इसमें द्वितीय और तृतीय शतीको अनेक रचनाओं के पद्य, वाक्यांश और पदांश उपलब्ध हैं। मनुस्मृति संग्रहमन्य है, इसका प्रमाण मनुस्मृतिमें भृगु द्वारा 'प्रोक वक्तव्यों का पद्यरूपमें निबद्ध करना है। श्री पाण्डुरंग वामन काणेने इसका संकलनफाल दूसरो शताब्दी माना है । तुलनाके लिए पद्य प्रस्तुत किये जाते हैं
सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम | देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगा रान्तरौजसम् ।।
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सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरी र भोग निर्विण्णः । पञ्चगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्वपथगृह्यः * ॥
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१. सम्मपद, सम्पादक - मिक्षुधर्मरक्षित, बनारस १९५३, गाथा १४१ |
२. हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र पृ० १३८, १४९, १५६ ।
३. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, प्रथम परिच्छेद, श्लोक २८ । ४. वड़ी, पचम परिच्छेद, श्लोक १६ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : १९७