________________
प्रथाका विकास और प्रसार ई० सन् पूर्वको शताब्दियोंसे ई० सन्की प्रारम्भिक शताब्दियों तक ही प्राप्त होता है। योग-क्रियाओंको सम्पादित करने में असमर्थ व्यक्ति गिरिपातद्वारा मुक्तिलाभ करता या। अतएव प्राचीन धर्मशास्त्रके लेखकोंने इस प्रथाकी समीक्षा की है। हरिभद्रकी 'समराइचकहा'के द्वितीय भवमें भी यह प्रथा उल्लिखित है । अतः समन्तभद्रने लोकमुढ़ताका जो वर्णन किया है वह उनकी प्राचीनताका सूचक है।
समन्तभद्रने प्रथम अध्यायको चौबीसवीं कारिकामें 'पाषण्डि-मूढता'को समीक्षा की है। यह 'पाषण्डी' शब्द विचारणीय है। धर्मके अर्थ में इसका प्रयोग प्राचीन साहित्यमें ही उपलब्ध होता है । अशोकके अभिलेखोंके साथ आचार्य कुन्दकुन्दके समयसारमें भी इस शब्दका प्रयोग आया है । कुन्दकुन्दने लिखा है
"पाखंडोलिंगाणि च गिहिलिंगाणि व बहुप्पयाराणि । चित्त वदंति मढा लिंगमिणं मोक्खमग्गो ति।।'
"ण वि एस मोक्खमग्गो पाखंडोगिहिमयाणि लिंगाणि" अशोकने भी गिरिनारके छठे अभिलेखमें 'पाषण्डि'शब्दका प्रयोग धर्म या सम्प्रदायके अर्थ में किया है । लिखा है-'सव-पासंडापि मे पूजित विविधाय पूजाय' इससे स्पष्ट है कि 'पाषंड-गूढता'का निरूपण समन्तभद्रको प्राचीनताका द्योतक है। प्रारम्भमें 'पाषंडी' शब्द पवित्रताके अर्थ में प्रचलित था, पर शन:शनै: इस शब्दका अर्थ अपकर्षित होने लगा और यह आडम्बरपूर्ण जीवन ध्यतीत करनेके अर्थ में प्रचलित हुआ।
जहाँ तक हमारा अध्ययन है पांचवों, छठी शताब्दीके किसी भी साहित्य में पाषंडीका प्रयोग धर्मके अर्थमें नहीं आया है। अतः समन्तभद्रके समयपर तो इससे प्रकाश पड़ता ही है, साथ ही रत्नकरण्डकश्रावकाचारको प्राचीनतापर भी प्रकाश पड़ता है।
एक अन्य विचारणीय विषय यह भी है कि मूढ़ताओंकी समीक्षा धम्मपद, महाभारत आदि प्राचीन ग्रन्योंमें उपलब्ध होती है। धर्मशास्त्रके निर्माताओंने मूढ़ताबोंकी समीक्षा ई. सन पूर्वसे ही आरम्भ कर दी थी । अतः समन्तभद्रको रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें इन मढ़ताओं की समीक्षाके लिये धम्मपदादि ग्रन्थोंसे भी प्रेरणा प्राप्त हुई हो, तो कोई आश्चर्य नहीं है। समन्तभद्रने इनकी समीक्षा
१. समयसार, गापा ४०८ । २. वही, गाथा ४१० ।
१९६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा