________________
सं० ६०० के पश्चात् हुआ माना गया है। इसी ग्रन्थकी एक पाण्डुलिपि भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूनामें है । इस प्रतिमें ग्रन्थका नाम तो 'योनिप्राभृत' ही लिखा है, किन्तु कर्ताका नाम 'पण्हसवण' मुनि बताया है । इन महामुनिने कुसुमाण्डिनी देवीसे इस ग्रन्थ के ज्ञानको प्राप्त किया था । और उसे अपने शिष्य पुष्पदन्त एवं भूतबलिके लिए लिखा था । इस कथनसे ग्रन्थके धरसेन रचित होनेकी सम्भावना व्यक्त होती है । प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धिका नाम है । सम्भवतया धरसेनाचार्य इस ऋद्धिके धारी थे । अतएव उन्हें प्रज्ञाश्रमण कहा गया है । षट्खण्डागममें प्रशाश्रमणोंको नमस्कार किया गया हैशम् पण्णसमणाणं "
प्रज्ञा चार प्रकारकी होती है- (१) औत्पत्तिकी, (२) वैनयिकी, (३) कर्मजा और (४) पारिणामिकी। इनमें पूर्वजन्मसम्बधी चार प्रकारकी निर्मलबुद्धिके बलसे विनयपूर्वक बारह अंगोंका अवधारण कर जो प्रथमतः देवगतिमें और तत्पश्चात् अविनष्ट संस्कार के साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं उनके औत्पत्तिकी प्रज्ञा कही है। प्रज्ञाका उक्त संस्कार अवशिष्ट रहनेके कारण चौदह पूर्वी का उत्तर देने में वे समर्थ रहते हैं। विनयपूर्वक द्वादश अंगोंके अध्ययनसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है वह वैनयिकी प्रज्ञा है । गुरूपदेश के बिना तपश्चरणके प्रभावसे उत्पन्न होने वाली प्रज्ञा कर्मजा कहलाती है । इस प्रकारकी प्रज्ञा मोषधसेवन से भी उत्पन्न होती है । जातिविशेषसे उत्पन्न बुद्धि पारिणामिको कहलाती है ।
धरसेनको प्रज्ञाश्रमणका पूर्वीशान था। अतः 'योनिप्राभृत' ग्रन्थ धरसेनाचार्य द्वारा रचित हो, तो कोई आश्चर्य नहीं । इस आधारपर इनका समय बीर- निर्वाणसंवत् ६०० संभव है ।
प्राकृतपट्टावलोके अनुसार वीर-निर्वाण-संवत् ६१४-- ६८३के बीच धरसेनका समय होना चाहिए। पट्टावली में घरसेनका आचार्य काल १९ वर्ष बत्तलाया है। इससे सिद्ध होता है कि वीर निर्वाण संवत् ६३३ तक धरसेन जीवित रहे हैं और वीर-निर्वाण संवत् ६३० या ६३१ में पुष्पदन्त और भूतबलिको श्रुतका अध्ययन कराया है। इस आधारपर धरसेनका समय ई० सन् ७३–१०६ ई० तक आता है ।
अहिवल्लि माघनंदि य घरसेणं पुष्कयंत भूदबली । अडवोर्स इगवीस उगणीसं तीस वीस बास पुणो ॥ २
अर्थात् अर्हद्बल, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलिका आचार्य
१. पट्खण्डा, वेदनाखण्ड ४।१।१८
२. जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग-१, किरण-४, ०७३ पद्य - १६
४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
•
L