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खण्ड : ३ श्रुतधर और सारस्वताचार्य
प्रथम परिच्छेद श्रुतधराचार्य
पट्टावलियों, अभिलेखों एवं प्रशस्तियोंसे श्रुताराधक आचार्योंकी परम्पराका परिज्ञान प्राप्त होता है। तीर्थंकर महावीरके निर्वाण-गमन के पश्चात् दिगम्बर आचार्यों ने वाङ्मयका प्रणयन कर रत्नत्रय धर्मकी ज्योतिको सतत प्रज्वलित किया । आत्मशोधन और आत्म-आराधनके साथ श्रुतके अखण्ड दीपको सदैव प्रज्वलित रहने के हेतु परम्परासे प्राप्त ज्ञानराशिको मूर्तरूप देकर सरस्वतीका अवतार प्रस्तुत किया । वस्तुतः दिगम्बराचार्योंने महावीरकी परम्पराको जीवित रखने के लिए अगणित ग्रन्थोंका प्रणयनकर अपनी साधनामें गुणात्मक परिवर्तन कर परम्पराको जीवन्त रखा है ।
आचार्य स्वरूप एवं विवेचन - आचार्यकी परिभाषा और स्वरूपके सम्बन्ध में आग्रन्थों में जो सामग्री उपलब्ध है, उससे स्पष्ट होता है कि आचार्यके लिये चतुर्दश विद्याका पारंगत एवं ग्रन्थ-प्रणेता होना आवश्यक है। यह दिगम्बर रूप में आत्म-साधना करता हुआ निर्व्याज भावसे श्रुतको साधना करता है| धवला टीकामें आचार्य वीरसेनने लिखा है - " पञ्चविधमाचारं चरन्ति
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