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रूक्ष गुणवाले परमाणुओंके बन्धका विधान आया है। वे सुत्र प्रवचनसारको निम्न गाथाओंपरसे रचे गये हैं
गिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विसमा वा । समदी दुगधिगा जदि वझति हि आदिपरिहीणा ! गिद्धत्तणेण दुगणी चदुगुणणि द्वेण बंधमणुभवदि । लुमखेण वा तिगुणिदो अणु वज्झदि पंचगुणजुत्तो।। दूपदेसादी खंधा सुहमा वा बादरा ससंठाणा ।
पुढविजलतेउवाक रामपरिणामेहि मा।। अपने शक्त्यशोंमें परिगमन करनेवाले परमाणु यदि स्निग्ध हों अथवा कक्ष हो, दो, चार, छह, आदि अशोकी गणनाको अपेक्षा सम हों, अथवा तीन, पाँच, मात आदि अंशोंको अपेक्षा विषम हों, अपने अंशोंसे दो अधिक हों, और जघन्य अंशमे रहित हो. तो परस्पर बन्धको प्राप्त होते हैं।
स्निग्ध गुणके दो अंशोंको धारण करनेवाले परमाण चतुर्गुण स्निम्पके साथ बंधते हैं । रूक्षगणके तीन अंशोंको धारण करनेवाला परमाणु पांचगुणयुक्त रूक्ष अंशको धारण करनेवाले परमाणु के साथ बन्धको प्राप्त होता है।
दो प्रदेशोंको आदि लेकर सख्यात, असंख्यात और अनन्तपर्यन्त प्रदेशको धारण करनेवाले सूक्ष्म अथवा बादर विभिन्न आकारोसे सहित तथा पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप स्कन्ध अपने-अपने स्निग्ध और रूक्ष गणोंके परिणमनसे होते हैं। ___ इसी प्रकार "बन्धेऽधिको पारिणामिको"|५|३७]सूत्रका स्रोत षट्त्रण्डागमके वर्गणाखण्डका बन्ध-विधान है।
तत्त्वार्थसत्रके षष्ठ अध्यायमें तीर्थकरनामकर्मके बन्धमें कारणभूत सोलह कारणोंका निर्देशक सूत्र निम्न प्रकार है--
दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभोक्षण ज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तितस्त्यागसपसी साधुसमाधियावृत्यकरण महंदावार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरवस्य ।। [६-२४]
अर्थात् १ दर्शनविशुद्धि, २ विनयसम्पन्नता, ३ शीलवतोंमें अनतिवार, ४ अभीक्षणज्ञानोपयोग,५संवेग, ६ शक्तितः त्याग,७ शक्तितः तप, ८ साधुसमाधि, १. प्रवचनसार, जयाधिकार, गाथा ७३,७४,७५ ।
ध्रुवपर और सारस्वताचार्य : १६१