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दूसरी चूलिका स्थानसमुत्कोत्तन नामको है। इसमें ११७ सूत्र हैं । प्रत्येक मूलकर्मकी कितनी उत्तरप्रकृतियाँ एक साथ बांधी जा सकती हैं और उनका बन्ध किस-किस गुणस्थानमें करता है, इसका सुस्पष्ट विवेचन किया गया है । तृतीय चूलिका प्रथम महादण्डक नामकी है । इसमें दो सूत्र हैं । प्रथमसम्यक्त्वको हम अपनेवाला लीचितकृतियोंका है, उन प्रकृतियोंकी गणना की गई है । इन प्रकृतियोंका बन्धकर्त्ता संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मनुष्य यह तिर्यच होता है । द्वितीय महादण्डक नामकी चौथी चूलिकामें भी केवल दो सूत्र हैं । इनमें ऐसी कर्मप्रकृतियोंकी भी गणना की गई है जिनका बन्ध प्रथमसम्यक्त्वके अभिमुख हुआ देव और छः पृथ्वियोंके नारकी ओय करते हैं। तृसीय दण्डक नामक पाँचवीं चूलिकामें दो सूत्र हैं । और इन सूत्रोंमें सातवीं पृथ्वी के नारकी atara सम्यक्त्वाभिमुख होनेपर बन्धयोग्य प्रकृतियोंका निर्देश किया गया है। छठी उत्कृष्टस्थिति नामक चूलिका में ४४ सूत्र हैं। इसमें बन्धे हुए कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका निरूपण किया गया है। आशय यह है कि सूत्रकर्त्ता आचार्यने यह बतलाया है कि बन्धको प्राप्त विभिन्न कर्म अधिक-से-अधिक कितने कालतक जीवोंसे लिप्त रह सकते हैं और बन्धके कितने समय बाद आबाधाकालके पश्चात् विपाक आरम्भ होता है। एक कोड़ाकोड़ी वर्षप्रमाण बन्धकी स्थितिपर १०० वर्षका आबाधाकाल होता है । और अन्तः कोड़ा कोड़ी सागारोपम स्थितिका आबाधाकाल अन्तर्मुहूर्त होता है । परन्तु आयुकर्मका आबाधाकाल इससे भिन्न है। क्योंकि वहाँ आबाधा अधिक-से-अधिक एक पूर्वकोटि आयुके तृतीयांश प्रमाण होती है। सातवीं जधन्यस्थिति नामक चूलिकामें ४३ सूत्र है । इस चूलिकामें कर्मोंकी जघन्य स्थितिका निरूपण किया गया है । परिणामोंकी उत्कृष्ट विशुद्धि जघन्य स्थितिबन्धका और संक्लेश उत्कृष्ट कर्मस्थितिबन्धका कारण है।
आठवीं चूलिका सम्यक्त्वोत्पत्ति १६ सूत्र हैं। इस चूलिका में सम्यक्त्वोत्पत्तियोग्य कर्मस्थिति, सम्यक्त्वके अधिकारी आदिका निरूपण है । जीवन-शोधन के लिए सम्यक्त्वकी कितनी अधिक आवश्यकता है, इसकी जानकारी भी इससे प्राप्त होती है। नवमी चूलिका गति अगति नामकी है। इसमें २४३ सूत्र हैं । विषयवस्तुकी दृष्टिसे इसे चार भागों में विभक्त किया जा सकता है। सर्वप्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके बाहरी कारण किस गतिमें कौन-कौनसे सम्भव है, इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। तदनन्तर चारों गतिके जीव मरणकर किस-किस गति में जा सकते हैं और किस-किस गति से किस-किस गतिमें आ सकते हैं, का विस्तारपूर्वक वर्णन पाया जाता है । देव मरकर देव नहीं हो सकता और न नारको ही हो सकता है। इसी तरह नारकी जोव मरकर न तर और सारस्वताचार्य : ६५