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नारको हो सकता है और न देव हो। इन दोनों गतियोंके जीव मरणकर मनुष्य या तिर्यञ्चगति प्राप्त करते हैं । देव और नारकी मरकर मनुष्य या तियंश्च ही होते हैं। मनुष्य और तिर्यञ्चगतिके जीव चारों हो गतियोंमें जन्म ग्रहण कर सकते हैं ।
तदनन्तर किस गुणस्थान में मरणकर कौन-सी गति किस-किस जीवको प्राप्त होती है, इसपर विशेष विचार किया है । तत्पश्चात् बतलाया गया है कि नरक और देवगतियोंसे आये हुए जीव तीर्थंकर हो सकते हैं । अन्य गतियोंसे आये हुए नहीं । चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र केवल देवगति से आये हुए जीब ही होते हैं, शेष गतियोंसे आये हुए नहीं । चक्रवर्ती मरणकर स्वर्ग और नरक इन दोनों गतियोंमें जाते हैं और कर्मक्षयकर मोक्ष भां प्राप्त कर सकते है । बलभद्र स्वर्ग या मोक्षको जाते हैं। नारायण और प्रतिनारायण मरणकर नियमसे नरक जाते हैं। तत्पश्चात् बतलाया गया है कि सातवें नरकका निकला जीव तिर्यञ्च ही हो सकता है, मनुष्य नहीं । छठे नरकसे निकले हुए जीव तिर्यञ्च और मनुष्य दोनों हो सकते हैं । पञ्चम नरकसे निकले हुए जीव मनुष्यभवमें संयम भी धारण कर सकते हैं, पर उस भवसे मोक्ष नहीं जा सकते | चौथे नरकसे निकले हुए जीव मनुष्य होकर और संयम धारण कर केवलज्ञानको उत्पन्न करते हुए निर्वाण भी प्राप्त कर सकते हैं। तृतीय नरकसे निकले हुए जीव तीर्थंकर हो सकते हैं। इस प्रकार जीवद्वाण नामक प्रथम खण्डमें कुल २,३७५ सूत्र हैं और यह आठ प्ररूपणाओं और नौ चूलिकाओं में विभक्त है । २. खुद्दाबन्ध (क्षुकबन्ध)
इसमें मार्गणास्थानोंके अनुसार कौन जीव बन्धक है और कौन अबन्धक, का विवेचन किया है । कर्मसिद्धान्त की दृष्टिसे यह द्वितीय खण्ड बहुत उपयोगी और महत्त्वपूर्ण है। इसका विशद विवेचन निम्नलिखित ग्यारह अनुयोगों द्वारा किया गया है
१. एक जीवको अपेक्षा स्वामित्व
२. एक जीवकी अपेक्षा काल
३. एक जीवकी अपेक्षा अन्तर
४. नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय
५. द्रव्य प्रमाणानुगम ६. क्षेत्रानुगम
७. स्पर्शानुगम
4. नानाजीवों की अपेक्षा काल
६६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आवारा