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एक जीव और नाना जीवोंको अपेक्षासे एक ही गुणस्थान और मार्गणामें रहनेकी जघन्य और उत्कृष्ट कालावधिका निर्देश करते हुए अन्तरकालका निरूपण किया है । मिथ्यादृष्टि जीवका अन्तरकाल कितना है, इस प्रश्नका उत्तर देते हुए बताया है कि नानाजीत्रोंकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है । ऐसा कोई काल नहीं जब संसार में मिथ्यादृष्टि जीवन पाये जायें, एक जविकी अपेक्षा भिय्यात्वका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहु और उत्कृष्ट अन्तर १३२ सागरोपम काल है । तात्पर्यं यह है कि मिध्यादृष्टि जीव परिणामोंकी विशुद्धिसे सम्यक्त्वको प्राप्त होकर कम-से-कम अन्तर्मुहूत्तं कालमें संक्लिष्ट परिणामों द्वारा पुनः मिथ्यादृष्टि हो सकता है । अथवा अनेक मनुष्य और देवगतियों में सम्यक्त्व सहित भ्रमणकर अधिक-से-अधिक १३२ सागरोपमको पूर्णकर पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हो सकता है । तीव्र और मन्द परिणामों के स्वरूपका विवेचन भी इस प्ररूपणाके अन्तर्गत आया है । नानाजीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगकेवली ये छ: गृणस्थान इस प्रकारके हैं, जिनमे अन्तराल उपस्थित नहीं होता ।
मार्गणाओं में उपशमसम्यक्त्व, सूक्ष्मसांपरायसंग्रम, आहारककाययोग, आहारकमिश्रकाययोग, वैक्रियिकमिश्रकाययोग, लब्ध्यपर्याप्तमनुष्य, सासादनसम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्व ऐसी अवस्थाएं हैं, जिनमें गुणस्थानोंका अन्तरकाल संभव होता है । इनका जधन्य अन्तरकाल एक समयमात्र और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन या छः मास आदि बतलाया गया है । इन आठ मार्गणाओं के अतिरिक्त शेष सभी मार्गणाओंवाले जीव सदा ही पाये जाते हैं।
भाव प्ररूपणा में ९३ सूत्र हैं। इनमें विभिन्न गुणस्थानों और मार्गणास्थानों में होनेवाले भावोंका निरूपण किया गया है। कर्मोंके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम आदिके निमित्तसे जीवके उत्पन्न होनेवाले परिणामविशेषोंको भाव कहते हैं। ये भाव पाँच हैं-- १. औदयिक भाव, २. ओपशमिक भाव ३. क्षायिक भाव, ४. क्षायोपशमिक भाव और ५. पारिणामिक भाव ।
इन भावों में से किस गुणस्थान और किस मार्गणास्थान में कौन-सा भाव होता है, इसका विवेचन इस भावप्ररूपणा में किया गया है। मिध्यात्वगुणस्थान में उत्पन्न होनेवाले मिथ्यादृष्टिको औदयिक भाव होता है। दूसरे गुणस्थान में अन्य भावोंके रहते हुए भी, परिणामिक भाव रहते हैं। जिस प्रकार जीवत्व आदि पारिणामिक भावोंके लिये कर्मोंका उदय, उपशम आदि कारण नहीं है उसी प्रकार सासादनसम्यक्त्वरूप भाव के लिये दर्शनमोहनीय कर्मका उदय, उपशमादि कोई भी कारण नहीं है ।
तघर और सारस्वताचार्य : ६३