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जा-आ सकता है। अतः उसके द्वारा स्पर्श किया क्षेत्र आठ राजु लम्बा हो जाता है | विहारके समान समुद्घात और उपपादको अपेक्षा भी जीवोंका क्षेत्र बढ़ जाता है। वेदना, कषाय आदि किसी निमित्तविशेषसे जीवके प्रदेशोंका मल शरीरके साथ सम्बन्ध रहते हुए भी बाहर फेलना समुद्घात कहलाता है ! समुशात गात । समुहमालको अवस्थामें जीवका क्षेत्र शरीरको अवगाहनाके क्षेत्रसे अधिक हो जाता है।
जीवका अपनी पूर्वपर्यायको छोड़कर अन्य पर्यायमें जन्म ग्रहण करना उपपाद है। इस प्रकार इस प्ररूपणामें स्वस्थान-स्वस्थान, विहारवत-स्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रियिक, आहारक, तेजस, मारणान्तिक, केलिसमुद्धात और उपराद इन दश अवस्थाओंकी अपेक्षा किस मणस्थानवाले और किस मार्गणावाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है, यह विवंचन किया गया है ।
कालानृयोगमें ३४२ सूत्र हैं । इस प्ररूपणामें एक जीव और नाना जीवोंके एक गुणस्थान और मार्मणामें रहनेको जघन्य एवं उत्कृष्ट मर्यादाओंको कालावधिका निर्देश किया है । मिथ्यादष्टि मिथ्यात्वगुणस्थानमें कितने काल पर्यन्त रहते हैं ? उत्तर देते हुए बताया है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल; पर एक जीबकी अपेक्षा अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त हैं । तात्पर्य यह है कि अभव्य जीव अनादि अनन्त तथा भव्य जीव अनादि-सान्त और मादिसान्त हैं । जो जीव एक बार सम्यक्त्व ग्रहणकर पुनः मिथ्यात्वगुणस्थानमें पहुँचता है, उस जीवका वह मिथ्यात्व सादि-सान्त कहलाता है।
सूत्रकारने बड़े ही स्पष्ट रूपमें मिथ्यास्वके तीनों कालोंका एक जोवकी अपेक्षा और अनेक जीवोंकी अपेक्षा निरूपण किया है । जब कोई जीव पहलीबार सम्यक्त्व प्राप्त कर अतिशीघ्र मिथ्यात्वको प्राप्त हो जाता है तो वह अधिक-से-अधिक मिथ्यात्व गुणस्थानमें अद्ध पुद्गल परावर्तन काल तक ही रहेगा। इसके अनन्तर वह नियमसे सम्यक्त्वको प्राप्तकर संयम धारण कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ___ अन्तर-प्ररूपणामें ३९७ सूत्र हैं। इस शब्दका अर्थ विरह, व्युच्छेद या अभाव है। किसी विवक्षित गुणस्थानवर्ती जीवका उस गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानमें चले जाने पर पुन: उसो गुणस्थानको प्राप्तिके पूर्व तकका काल अन्तरकाल या विरहकाल कहलाता है। सबसे कम विरह-कालको जघन्य अन्तर और सबसे बड़े विरहकालको उत्कृष्ट अन्तर कहा है । इस प्रकारके अन्तरकालकी प्ररूपणा करने वाली यह अन्तर-प्ररूपणा है। यह अन्तरकाल सामान्य और विशेषकी अपेक्षासे दो प्रकारका होता है । सूत्रकारने ६.२ : नीर्थकर महानी और उनकी आचार्ग-परम्पग