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उपर्युक्त विश्लेषणके प्रकाशमें इस स्वीकृतिका विरोध नहीं किया जा सकता कि भक्तामर और कल्याणमन्दिर दोनोंकी पदावलो, कल्पनाएं एवं तथ्यनिरूपण-प्रणाली समान हैं।
ये दोनों स्तोत्र तथ्य-विश्लेषणको दृष्टिसे श्रीमद्भागवद् और शैलीको दृष्टिसे पुष्पदन्तके शिवमहिम्नस्तोत्रके समकक्ष हैं । रचना-परिचय और काव्यप्रतिभा
मानतुङ्गकी एकमात्र रचना ४८ पद्यप्रमाण भक्तामर स्तोत्र है। यह समस्त स्तोत्र वसन्ततिलकाछन्दमें लिखा गया है। इसमें आदितीर्थङ्कर ऋषभनाथकी स्तुति की गयी है । इस स्तोत्रको यह विशेषता है कि इसे किसी भी तीर्थङ्कर पर घटित किया जा सकता है। प्रत्येक पद्यमें उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक अलङ्कारका समावेश किया है। इसका भाषा-सौष्ठव और भावगाम्भीयं आकर्षक है। कवि अपनी नम्रता प्रकट करता हआ कहता है कि हे प्रभो ! में अल्पज्ञ बहुश्रुतज्ञ विद्वानों द्वारा हँसीका पात्र होने पर भी आपको भक्ति ही मुझे मुखर बनाती है। बसन्तमें कोकिल स्वयं नहीं बोलना चाहतो, प्रत्युत आम्रमञ्जरी ही उसे बलात् कूजनेका निमन्त्रण देती है। यथा
अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहासधाम
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । पत्कोकिल: किल मघौ मधुरं विरौति
तच्चाम्रचारुकलिकानिकरैकहेतुः ॥ अतिशयोक्ति अलंकारके उदाहरण इस स्तोत्रमें कई आये हैं। पर १७ वें पद्यका अतिशयोक्ति अलङ्कार बहुत ही सुन्दर है । कवि कहता है कि हे भगवन् ! आपकी महिमा सूर्यसे भी बढ़कर है, क्योंकि आप कभी भी अस्त नहीं होते । न राहुगम्य हैं, न आपका महान प्रभाव मेघोंसे अवरुद्ध होता है। आप समस्त लोकोंको एक साथ अनायास स्पष्ट रूपसे प्रकाशित करते हैं, जब कि सूर्य गहसे ग्रस्त या मेघोंसे आच्छम्म हो जाने पर अकेले मध्यलोकको भी प्रकाशित करने में अक्षम रहता है । यथानास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः ।
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति । नाम्भोघरोदरनिरूद्धमहाप्रभाव:
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र ! लोके ।। १. भक्तामरस्तोत्र, पद्य । २. वही, पद्य १७ ।
श्रुतघर और सारस्वताचार्य : २७५